प्रश्न

गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 3 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि सांख्य योगियों की निष्ठा ज्ञानयोग से होती है।
यहाँ सांख्य योग अथवा सांख्य योगी से किसका अभिप्राय है?
और सांख्य योगी की निष्ठा ज्ञानयोग से होती है—इस कथन का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
कृपया मार्गदर्शन करें। 🙏🏻🙏🏻

साथ ही यह भी स्पष्ट करें कि क्या सांख्य योगी को केवल सांख्य दर्शन का ज्ञाता ही मानना चाहिए?

उत्तर

“सांख्य योगी” का अर्थ यदि संकीर्ण अर्थ में लिया जाए, तो वह कपिल मुनि के सांख्य दर्शन को मानने वाला साधक होता है। सांख्य दर्शन मूलतः ज्ञान-प्रधान दर्शन है, जिसमें तत्त्वों की विवेचना द्वारा आत्मा और प्रकृति का भेद स्पष्ट किया जाता है।

किन्तु गीता में “सांख्य योगी” शब्द का प्रयोग केवल इसी सीमित अर्थ में नहीं हुआ है। व्यापक अर्थ में, सांख्य योगी वह योगी है जो बुद्धि और विवेक से सम्पन्न है—जो ब्रह्म, जीव और संसार के बीच के सूक्ष्म भेद को बौद्धिक विवेचना द्वारा समझने में समर्थ होता है। ऐसे साधकों के लिए ज्ञानमार्ग स्वाभाविक रूप से अधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि उनकी साधना का आधार विचार, विवेक और तत्त्वचिन्तन होता है।

परम्परागत रूप से ऐसे ज्ञानप्रधान साधक प्रायः संन्यास ग्रहण करके ज्ञान की साधना करते रहे हैं। इस दृष्टि से, व्यापक अर्थ में “सांख्य योग” को “संन्यासयुक्त ज्ञानयोग” कहना भी अनुचित नहीं होगा।

अतः यह स्पष्ट है कि गीता में “सांख्य योगी” का अभिप्राय केवल कपिल मुनि के सांख्य दर्शन को मानने वाले व्यक्ति से नहीं है, बल्कि उस साधक से है जिसकी निष्ठा ज्ञान और विवेक पर आधारित है।

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