गुरुदेव प्रणाम🙏🙏
गुरुदेव कर्मयोग,भक्ति योग, ज्ञान योग,भक्ति योग,जप योग व शरणागति योग क्या है?
क्या भगवतधर्मी को इन सभी योगों का अनुसरण करना चाहिये या इन मे से वह किसी एक को चुने…मतलब इन सभी योगों में सामंजस्य कैसे स्थापित करें?
मार्गदर्शन करें🙏🙏
उत्तर
यहाँ आपने जिन–जिन योगों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग हैं।
मोक्ष का अर्थ है जन्म–मृत्यु के चक्र से पूर्ण मुक्ति। जन्म–मृत्यु के चक्र से मुक्ति का निहितार्थ यह है कि मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है, क्योंकि पुनर्जन्म ही समस्त दुःखों का मूल है।
श्लोक (भगवद् गीता 8.15) मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥
अर्थ
जो महात्मा मुझे प्राप्त हो जाते हैं, वे इस दुःखों से भरे और अनित्य संसार में पुनः जन्म नहीं लेते, बल्कि परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं।
मोक्ष तभी प्राप्त होता है जब ईश्वर से पूर्ण संयोग हो जाता है, अथवा दूसरे शब्दों में, जब ईश्वर-प्राप्ति हो जाती है।
कर्म-योग
कर्म-योग का अर्थ है संन्यास लिए बिना जीवन के सामान्य कर्तव्यों में लगे रहना, किंतु प्रत्येक सांसारिक कर्म को ईश्वर को समर्पित करके करना, कर्मफल में आसक्ति न रखना, और संसार में रहते हुए भी उससे आसक्त न होना—यही कर्म-योग का सार है। ऐसा होने पर सांसारिक कर्म भी ईश्वर-प्राप्ति, अर्थात मोक्ष, के साधन बन जाते हैं।
श्लोक (भगवद् गीता 3.19) तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥
अर्थ —
अतः आसक्ति रहित होकर निरंतर अपना कर्तव्य कर्म करो; क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करने से मनुष्य परम स्थिति को प्राप्त करता है।
भक्ति-योग
भक्ति-योग का अर्थ है ईश्वर से इस प्रकार प्रेम करना कि अंततः ईश्वर-प्राप्ति हो जाए। यह भक्ति-योग संन्यास लेकर भी किया जा सकता है और कर्म-योगी रहते हुए भी।
भक्ति-योग में मुख्य रूप से भावना का स्थान होता है। जिन व्यक्तियों में भावना की प्रधानता होती है और ईश्वर-प्रेम की तीव्रता होती है, उनके लिए यह मार्ग अत्यंत उपयुक्त है।
ज्ञान-योग
ज्ञान-योग वह योग है जिसमें भावना की अपेक्षा बुद्धि का विशेष प्रयोग होता है। यह मार्ग विशेष रूप से तीव्र मेधा-शक्ति से संपन्न व्यक्तियों के लिए उपयुक्त माना गया है। सामान्यतः इसके लिए संन्यास का जीवन, शास्त्रों का निरंतर अध्ययन, उनके अर्थ का बोध, तथा शास्त्र-वाक्यों पर गहन चिंतन-मनन अपेक्षित होता है। इस प्रकार की साधना से दीर्घकाल में—कभी-कभी तीन-चार दशकों में—ईश्वर और आत्मा का अपरोक्ष अर्थात प्रत्यक्ष ज्ञान संभव होता है।
जप-योग
जप-योग में प्रभु के नाम या नाम से जुड़े मंत्र का दीर्घकाल तक जप किया जाता है। इस जप में जितना अधिक भाव होता है, उसका प्रभाव उतना ही गहरा होता है। इस मार्ग से भी अंततः ईश्वर-प्राप्ति होती है।
शरणागति-योग
शरणागति-योग में केवल भक्ति, ज्ञान या जप ही नहीं होता, बल्कि इनके साथ-साथ यह दृढ़ भाव विकसित होता है कि—
‘मैं ईश्वर की शरण में हूँ, इसलिए मैं सदा सुरक्षित हूँ।’
ऐसे साधक को किसी भी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके योग-क्षेम का वहन करते हैं।
प्रह्लाद इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
शरणागति-योग अपने आप में भी पूर्ण योग है। फिर भी, चाहे कोई व्यक्ति किसी भी योग-मार्ग पर हो, यदि उसमें शरणागति का भाव आ जाए, तो उसकी साधना में अत्यंत तीव्र प्रगति होती है।
एक मार्ग या अनेक मार्ग
इनमें से किसी एक योग का भी यदि सम्यक् रूप से अनुसरण किया जाए, तो ईश्वर-प्राप्ति अवश्य होती है और मोक्ष प्राप्त होता है। यह साधना की तीव्रता पर निर्भर करता है कि मोक्ष इसी जीवन में प्राप्त होगा या अनेक जन्मों के पश्चात।
ईश्वर-प्राप्ति की यात्रा किसी भी एक मार्ग से हो सकती है, पर यह ठीक वैसा ही है जैसे दिल्ली पहुँचना—कोई पैदल पहुँच सकता है, कोई रेल से और कोई विमान से। मार्गों का समन्वय साधना की गति को विमान जैसी तीव्र गति प्रदान कर देता है।
ज्ञानी भक्त : गीता का विशेष संकेत
इसी कारण भगवद् गीता में भगवान ने संकेत किया है कि यदि विभिन्न योगों का संतुलित समन्वय किया जाए, तो मोक्ष अधिक शीघ्र प्राप्त होता है। उदाहरण के रूप में, भगवान ने ‘ज्ञानी भक्त’ को विशेष प्रिय बताया है—अर्थात जो भक्त भी है और ज्ञानी भी।
श्लोक (भगवद् गीता 7.16)
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
अर्थ —
हे अर्जुन! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी भक्ति करते हैं—आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी।
श्लोक (भगवद् गीता 7.17)
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
अर्थ
इनमें ज्ञानी, जो नित्य मुझसे जुड़ा हुआ है और एकनिष्ठ भक्ति करता है, वह श्रेष्ठ है; क्योंकि मैं ज्ञानी को अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है।
ज्ञान-मार्ग में अव्यभिचारिणी भक्ति
ज्ञान-मार्गी में भी अव्यभिचारिणी भक्ति का भाव उसकी ज्ञान-साधना को पुष्ट करता है। इसी कारण ज्ञान-योग से संबंधित अध्याय 13 और 14—दोनों में भगवान ने भक्ति की अनिवार्यता स्पष्ट की है।
श्लोक (भगवद् गीता 13.10–12)
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
अर्थ (सार) —
ज्ञान के साधनों में अहंकार-रहितता, इन्द्रिय-वैराग्य, जन्म-मृत्यु के दुःखों का विवेचन, और मुझमें अनन्य तथा अव्यभिचारिणी भक्ति अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं।
श्लोक (भगवद् गीता 14.26)
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
अर्थ—
जो पुरुष अव्यभिचारिणी भक्ति-योग से मेरी सेवा करता है, वह तीनों गुणों को पार करके ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है।
इन मार्गों में से ज्ञान-योग और ध्यान-योग मुख्यतः संन्यासियों के लिए उपयुक्त माने गए हैं। इनके साथ अन्य योगों का मिश्रण न तो अनिवार्य है और न ही सदा संभव। किंतु आध्यात्मिक ज्ञान सभी मार्गों के लिए उपयोगी है, भले ही ज्ञान-योग की संपूर्ण प्रक्रिया का पालन अन्य मार्गों में आवश्यक न हो।
इसी प्रकार, ध्यान-योग मुख्यतः निराकार ईश्वर के ध्यान से संबंधित है। निराकार ईश्वर का ध्यान कर्म-योगी या भक्ति-योगी के लिए अनिवार्य नहीं है। भक्ति-मार्ग में सगुण ईश्वर का ध्यान अधिक उपयुक्त माना गया है।
निष्कर्ष
कर्म-मार्ग का भक्ति, ज्ञान, जप, शरणागति, परोपकार-योग तथा गीता-ज्ञान-प्रसार-योग के साथ सहज और सफल समन्वय संभव है। इसमें कोई मौलिक कठिनाई नहीं है।
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