आज ध्यान दिवस है। यह निश्चय ही प्रसन्नता की बात है कि भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व का ध्यान ‘ध्यान’ की ओर आकर्षित किया गया है, और यह प्रयास अब प्रत्येक वर्ष होता रहेगा।
परन्तु ध्यान के विषय में समाज में अनेक भ्रांत धारणाएँ प्रचलित हैं, जिनका निराकरण अत्यन्त आवश्यक है।
ध्यान पर हुए एक अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, आज संसार में लगभग 1100 प्रकार के ध्यान प्रचलित हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि—
हम कौन-सा ध्यान करें, और क्यों करें?
ध्यान के मूलतः दो उद्देश्य
ध्यान को उद्देश्य के आधार पर मोटे तौर पर दो वर्गों में समझा जा सकता है—
- ईश्वर-प्राप्ति के लिए किया जाने वाला ध्यान
- अन्य ध्यान, जिनका उद्देश्य न तो ईश्वर-प्राप्ति है, न ही आध्यात्मिक उन्नयन
ईश्वर-प्राप्ति के लिए ध्यान : दो मार्ग
(1) निर्गुण–निराकार ध्यान
यह वह ध्यान है जिसमें निर्गुण, निराकार ईश्वर या निराकार आत्मा का ध्यान किया जाता है।
इसका सर्वाधिक प्रामाणिक और शास्त्रीय स्रोत महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग है, जैसा कि योगसूत्र में वर्णित है। इसमें ध्यान की सीढ़ी-दर-सीढ़ी, क्रमिक प्रक्रिया बताई गई है—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इसी अष्टांग योग से अनेक शाखाएँ निकलकर विकसित हुईं, जिन्हें थोड़े-बहुत भेद के साथ हठयोग, राजयोग, क्रियायोग आदि नामों से जाना जाता है।
इन प्रक्रियाओं में कुंडलिनी जागरण और षट्चक्र-भेदन जैसी साधनाएँ भी सम्मिलित हैं।
सामान्य रूप से ये साधनाएँ सन्न्यासियों के लिए अधिक उपयुक्त मानी गई हैं—जो संसार से निवृत्त होकर, रजोगुण से मुक्त हो, केवल ईश्वर-प्राप्ति के लिए जीवन समर्पित करते हैं।
यह मार्ग अत्यन्त क्लेशकारी है—जैसा कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के द्वादश अध्याय में कहा है—
श्लोक (12.5):
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
अर्थात—
निर्गुण, अव्यक्त तत्त्व में आसक्त चित्त वालों के लिए साधना अत्यधिक क्लेशयुक्त होती है, क्योंकि देहधारी मनुष्य के लिए अव्यक्त मार्ग कठिन है।
(2) सगुण ईश्वर का ध्यान
ईश्वर-प्राप्ति का दूसरा मार्ग सगुण ध्यान है।
इसमें ईश्वर की मूर्ति या चित्र को सामने रखकर खुली आँखों से दर्शन किया जाता है—
एक-एक अंग, एक-एक आभूषण, एक-एक भाव का निरीक्षण किया जाता है।
फिर आँखें मूँदकर उसी रूप का ध्यान किया जाता है।
धीरे-धीरे वह छवि मन में पूर्णतः अंकित हो जाती है।
एक समय ऐसा आता है जब बाह्य चित्र की आवश्यकता नहीं रहती।
और आगे चलकर वही छवि ध्यान में जीवंत दर्शन का रूप ले लेती है।
भागवत पुराण में सगुण ध्यान की दो विधियाँ बताई गई हैं, जिनमें से यह एक प्रमुख विधि है।
इस मार्ग में सामान्यतः कोई मानसिक संकट उत्पन्न नहीं होता।
गृहस्थों के लिए चेतावनी
कभी-कभी कुछ गुरुजन सामान्य गृहस्थों को भी ‘भ्रूवोर्मध्ये ध्यान’, कुंडलिनी जागरण, या निराकार साधनाओं की दीक्षा देने लगते हैं।
यह स्थिति गंभीर संकट उत्पन्न कर सकती है।
निराकार ध्यान या कुंडलिनी-साधना, यदि सिद्ध गुरु के बिना की जाए, तो यह साधक को मानसिक असंतुलन की ओर भी ले जा सकती है।
केवल वीडियो देखकर, या अधपके गुरु से दीक्षा लेकर ऐसी साधनाएँ नहीं करनी चाहिए।
अष्टांग योग की ध्यान-प्रक्रिया वही सिखा सकता है, जिसने स्वयं उस मार्ग से परम सिद्धि प्राप्त की हो।
ईश्वर-प्राप्ति के अतिरिक्त ध्यान
आज प्रचलित बहुत-से ध्यान ईश्वर-प्राप्ति या आत्म-साक्षात्कार के लिए नहीं होते।
उनका उद्देश्य केवल—
मानसिक शांति
तनाव से मुक्ति
अच्छी अनुभूति
नशे या क्रोध जैसी आदतों से छुटकारा
होता है।
इन उद्देश्यों के लिए भी अलग-अलग ध्यान-पद्धतियाँ हैं, जिनसे मन कुछ समय के लिए शांत हो जाता है।
उद्देश्य स्पष्ट हो, तभी ध्यान सार्थक
इसलिए ध्यान करने से पहले यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि—
हम ध्यान क्यों करना चाहते हैं?
उसी उद्देश्य के अनुसार ध्यान का चयन होना चाहिए।
मन का भटकाव और गाइडेड मेडिटेशन
ध्यान में सबसे बड़ी कठिनाई है—मन का भटकना।
इसे नियंत्रित करने के लिए गाइडेड मेडिटेशन सहायक होता है, जिसमें संगीत और मार्गदर्शन की आवाज के साथ ध्यान किया जाता है।
इससे मन कुछ समय के लिए निर्देशित रहता है और अस्थायी शांति की अनुभूति होती है।
परन्तु यह शांति स्थायी नहीं होती।
स्थायी शांति का उपाय : गीता का मार्ग
मन की स्थायी शांति का उपाय केवल ध्यान नहीं है।
उसका उपाय है—
श्रीमद्भगवद्गीता का अनासक्ति योग
कामनाओं के अतिरेक में कमी
संतोष का अभ्यास
अत्यधिक कामनाएँ, विशेषकर रजोगुण से प्रेरित क्रियाएँ, मन को अशांत कर देती हैं।
इसलिए आवश्यक है कि मनुष्य कुछ आवश्यक कामनाओं पर ही मन केंद्रित करे और शेष से विरक्त होकर संतोष में स्थित हो।
क्योंकि संतोष से ही शांति आती है।
रजोगुण और ध्यान
जब तक मनुष्य में रजोगुण प्रधान रहता है, तब तक ध्यान स्थिर नहीं हो सकता।
रजोगुण कर्म के लिए बाध्य करता है, आवेग उत्पन्न करता है।
इसी को भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं—
श्लोक (18.24 का भाव):
सर्वकर्मसमारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः…
अर्थात—
जो कर्म कामना और संकल्प से प्रेरित होकर आरम्भ होते हैं, वे रजोगुण को बढ़ाते हैं।
गृहस्थ और कुंडलिनी साधना
एक साधिका ने मुझसे पूछा कि वे पिछले दस वर्षों से दोनों भ्रुओं के मध्य ध्यान करने का प्रयास कर रही हैं, पर सफल नहीं हो सकीं।
उनके गुरु ने उन्हें कुंडलिनी-संबंधी साधना दी है।
मेरा मानना है कि अत्यधिक गृहस्थीय कर्तव्यों से बँधे व्यक्ति के लिए यह मार्ग अत्यन्त कठिन है।
जब तक रजोगुण को नियंत्रित कर, सत्त्वगुण में स्थित होकर कर्म नहीं किए जाते, तब तक ध्यान स्थिर नहीं होता।
ईश्वर-प्राप्ति के सरल और सुरक्षित मार्ग
ईश्वर-प्राप्ति के लिए कुंडलिनी जागरण आवश्यक नहीं है।
श्रीमद्भगवद्गीता ने अनेक सरल, सुरक्षित और प्रभावी मार्ग बताए हैं—
भक्ति योग
कर्म योग
जप योग
परोपकार योग
गीता-ज्ञान प्रसार योग
इन सभी में ज्ञान का तत्व अनिवार्य है, यद्यपि ये ‘ज्ञान योग’ की कठिन साधना से भिन्न हैं।
इन मार्गों का अनुसरण करके, विशेषकर गृहस्थ व्यक्ति, बिना किसी मानसिक या आध्यात्मिक जोखिम के, ईश्वर की ओर तीव्र गति से प्रगति कर सकता है।
समापन
अतः आज ध्यान दिवस के अवसर पर, ध्यान के विषय में इन तथ्यों को जानकर, उन पर मनन करें और ध्यान के तत्त्व को सही रूप में समझने का प्रयास करें।
हरि शरणम्!
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