यात्रा-वृतांत : मेरे होस्ट और मित्र राहुल सूर
5, 6 दिसंबर, 2025
सूरज धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा है।
यूरोप और अमेरिका में लगभग सभी घरों में हीटिंग होती है, इसलिए बाहर की ठंड का अनुमान घर के भीतर नहीं होता; जैसे ही बाहर निकलते हैं, मौसम का असली स्वरूप सामने आ जाता है—दिसंबर की रातों में तापमान कई बार शून्य से नीचे।
आज, कमरे की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से उज्ज्वल धूप भीतर आ रही है और वातावरण को गरमाहट दे रही है।
राहुल अभी थोड़ी देर के लिए बाहर गए हैं। मैं ड्रॉइंग रूम में बैठा हूँ और राहुल जी की श्रीमती, मीना जी, किचन में हल्का-फुलका काम कर रही हैं। किचन, ड्रॉइंग रूम का ही एक हिस्सा है।
मीना जी, संयुक्त राष्ट्र के न्यूयॉर्क स्थित मुख्यालय में कार्यरत हैं—सप्ताह में तीन-चार दिन कार्यालय जाती हैं और शेष दिनों में घर से काम करती हैं।
राहुल जी की अनुपस्थिति में अपने एक संबंधी की बात करते हुए हँसते हुए कहती हैं—
“जरा सोचिए, कोई अतिथि शाम को घर आए और कोई आदमी बिना वाई-फाई का पासवर्ड दिए सोने चला जाए—क्या यह समझदारी है? मेरे भाई ने एक बार ऐसा ही किया। पता नहीं, आदमियों को अक़्ल कब आएगी!”
“आदमी” से उनका आशय, स्पष्टतः, पुरुषों से है।
मैं मन ही मन सोचता हूँ—कल रात यही काम तो उनके पति, मेरे मित्र राहुल ने भी मेरे साथ किया था! क्या यह तीर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं पर चलाया गया है? निश्चय ही चलाया गया है।
कल रात, बिना वाई-फाई पासवर्ड दिए वे सोने चले गए, और मैं अपने लंदन या भारत के परिजनों को यह सूचना अभी तक न दे सका कि मैं सुरक्षित न्यूयॉर्क पहुँच गया हूँ।
मीना जी की बात का समर्थन करते हुए मैं कह देता हूँ कि—
“सचमुच, आदमियों को ईश्वर ने कॉमन सेंस थोड़ी कम ही दी है, चाहे वे अपने पेशे में कितने ही दक्ष क्यों न हों।”
पर उसी क्षण याद आता है— सर्वतोऽक्षि-शिरोमुखम्—ईश्वर की आँखें और कान हर ओर हैं। वे यह सब देख-सुन रहे होंगे कि मैं मीना जी का समर्थन कर अपने ही मित्र को उनकी अनुपस्थिति में लक्ष्य बना रहा हूँ—और साथ ही, सारे “आदमियों” को भी! और ईश्वर का कृष्ण रूप तो अत्यंत नटखट है। उनके साथ मेरा थोड़ा मित्र भाव भी रहता है।
थोड़ी देर बाद मैं अपने कमरे में जाकर अपना सूटकेस खोलने का प्रयास करता हूँ क्योंकि मेरे सारे कपड़े उसी में बंद हैं। सूटकेस में वह ताला है, जिसे दबाते ही लॉक हो जाता है—चाबी घुमानी नहीं पड़ती। इसकी छोटी-सी चाबी मेरे हैंडबैग में रहती थी, मगर अब उसमें मिल ही नहीं रही।
मैं मीना जी से ताला तोड़ने के लिए कोई औज़ार माँगता हूँ। वे ताला तोड़ने से मना करती हैं और कहती हैं—
“छोटे ताले प्रायः एक ही चाबी से खुल जाते हैं।”
वे एक छोटी चाबी ला कर मुझे देती हैं—और सचमुच, ताला खुल जाता है!
मैं पाता हूँ कि मैंने वही चाबी, अनजाने में, सूटकेस के भीतर ही रख दी थी—और बाहर से ताला बंद कर दिया था।
जो टिप्पणी “आदमियों” पर की गई थी और जिसे मैंने राहुल की ओर मोड़ दिया था—भगवान ने तुरंत दिखा दिया कि वह केवल राहुल पर लागू नहीं होती।
मैं मीना जी से विनती करता हूँ—
“कृपया मेरी इस हरकत की सूचना घर पर न भेज दीजिएगा। वहाँ तो पहले से मेरे ऐसे कई विचित्र कृत्यों की लंबी सूची रखी हुई है—इसमें एक और कथा जुड़ जाएगी – चाबी बक्से के अंदर रखकर बाहर से वही ताला बंद।”
कुछ महीने पहले राहुल सूर जी भारत आए थे और मुझसे मिलने वृंदावन भी पहुँचे थे। न्यूयॉर्क आने का मुझे निमंत्रण भी कई बार दिया। निमंत्रण देते समय मैंने उनसे पूछा था—
“क्या आपके पास वहाँ कोई ड्राइवर है?”
उन्होंने कहा—“ना ड्राइवर है, ना कार। कार पार्क करने का शुल्क ही 500 डॉलर प्रतिमाह है—यानी लगभग पचास हजार रुपए। यह सब अधिकारी-वर्ग के वश की बात नहीं।”
फिर मैंने पूछा—“कोई हाउस-हेल्प?”
वे बोले—“मीना ऑफिस जाती हैं, मैं रिटायर्ड हूं। अतः बाकी धर का, बाजार का काम मैं ही करता हूँ। मैं ही ‘बहादुर’ हूँ।”
तब मुझे विश्वास नहीं हुआ था। पर यहाँ आकर देख रहा हूँ कि यह बिल्कुल सही है।
अभी मीना जी घर में हैं। राहुल सब्जियाँ काट रहे हैं और मीना जी भोजन बना रही हैं। सचमुच, वे वही बहादुरी का काम कर रहे हैं जिसका दावा उन्होंने किया था।
खिचड़ी और राहुल की ‘कुकर-कथा’
मीना जी कार्यालय चली जाती हैं। मैं और राहुल घर में हैं। हालांकि मीना जी खाना बना कर गई हैं लेकिन मुझे खिचड़ी खाने की इच्छा हो रही है—इंग्लैंड में एक दिन भी नहीं मिली।
एक और कारण है—वृंदावन में राहुल ने पहली बार आलू का चोखा खाया था और इतना पसंद किया कि सब खत्म कर दिया। मैंने हल्की-सी चुटकी ली थी—“थोड़ा मेरे लिए भी छोड़ देते तो अच्छा होता।”
आज मैं स्वयं खिचड़ी और चोखा बनाकर अपने मित्र को खिलाना चाहता हूँ। उन्हें ना तो खिचड़ी बनाने आती है ना चोखा बनाने। पंजाब के लोग हैं, और शायद पंजाब में इन चीजों का प्रचलन नहीं। मगर राहुल को दोनों चीजें बहुत पसंद है।
मुझे खाद्य पदार्थों में सिर्फ खिचड़ी बनाने आती है।
मैं उनसे कुकर लाने को कहता हूँ। वे तीन कुकर ले आते हैं। मैं एक में दाल-चावल डालता हूँ, दूसरे में आलू।
वे खिचड़ी बनाना सीखने को उत्सुक हैं। मैं उन्हें सिखाता हूँ—
दो मुट्ठी भर दाल और एक मुट्ठी भर चावल
नमक, हल्दी
पानी दाल-चावल की सतह से एक इंच ऊपर
एक तेज सिटी, फिर दो मध्यम सिटी
दस मिनट में खिचड़ी तैयार हो जानी चाहिए।
परंतु…
बीस मिनट बीत जाते हैं—किसी कुकर से सिटी की आवाज नहीं।
कोई भी कुकर स्टीम पकड़ने को तैयार नहीं।
राहुल तीसरा कुकर लाते हैं—उसकी सीटी इस पर, उसकी रबर-रिंग उस पर…
यह अदला-बदली कई बार चलती है—फिर भी सभी कुकर एक समान शांत।
“मीना तो कुकर में ही पकाती हैं। पता नहीं क्या हो गया इन्हें”, वे बुदबुदाते हैं।
वे कहते है कि तीनों कुकर वे फेंक देंगे। मैं उन्हें समझाता हूं कि कभी-कभी कुकर में नहीं कुक में दिक्कत होती है।
मैं कहता हूँ—
“रहने दीजिए भाई, बिना सिटी के ही पकने दीजिए—जैसे पुराने ज़माने में होता था।”
एक घंटे बाद खिचड़ी तैयार।
ओवरकुक्ड—पर अपनी बनाई हुई थी है, इसलिए स्वादिष्ट।
चोखा भी ठीक-ठाक—आलू पुराने थे।
आइसक्रीम और ‘बोधिवृक्ष’ का रहस्य
तीसरे दिन राहुल बाजार जा रहे थे। मैं साथ हो लिया। देखूं, न्यूयॉर्क का बाजार कैसा होता है! लौटते वक्त
उनके हाथ में तीन झोले—मैं एक थाम लेता हूँ।
कृतज्ञता-स्वरूप वे मुझे रास्ते में एक आइसक्रीम पार्लर में ले जाते हैं।
“कौन सी आइसक्रीम खाएंगे आप”, वह पूछते हैं।
मैं कहता हूँ—“कोई भी वेज आइसक्रीम।”
वे दो अलग-अलग प्रकार की आइसक्रीम की कप ले आते हैं।
दोनों अपने-अपने कप लेकर बैठ जाते हैं।
राहुल एक चम्मच खाते हैं—
“नॉट ए गुड टेस्ट।”
फिर मुझसे कहते हैं—
“मुझे पसंद नहीं आई। क्या आप अपनी वाली देंगे? आप मेरी ले लीजिए।” फिर वे अपनी कप मेरी ओर बढ़ा देते हैं।
मैं उनकी और आश्चर्य और अविश्वास की नजर से देखता हूं!
और उसी क्षण मुझे समझ आता है कि उनकी श्रीमती जी ने उनकी कुर्सी के ऊपर बोधि-वृक्ष क्यों लगा रखा है! और किस आशा में!
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