गुरुदेव प्रणाम। 🙏🙏

क्या प्रभु की आराधना करने के लिए धूप, दीप, अगरबत्ती, कपूर आदि की आवश्यकता होती है, या इनके बिना भी भगवान की पूजा-अर्चना की जा सकती है?

क्योंकि आजकल प्रिंट और सोशल मीडिया के माध्यम से सनातन धर्म का इतना अधिक दुष्प्रचार किया जा रहा है कि बहुत-से सनातनी असमंजस में पड़ जाते हैं कि क्या करें और क्या न करें।

उत्तर

प्रभु की पूजा अनेक प्रकार से की जाती है, और लोग अनेक कारणों से पूजा करते हैं। इन कारणों को समझ लेने के बाद यह प्रश्न कि धूप, दीप, कपूर आदि आवश्यक हैं या नहीं—अपने आप स्पष्ट हो जाता है।

1) परंपरा के कारण की जाने वाली पूजा

घर-परिवार में जो दिखाई देता है—मंदिर जाना, दीप-धूप जलाना, आरती करना—उसी की नकल बच्चे भी करने लगते हैं।
उद्देश्य का ज्ञान प्रायः नहीं होता; परंपरा मात्र चलती रहती है।
कई पुजारी भी, शास्त्रों के गहन अध्ययन के अभाव में, ज्ञान के बजाय परंपराओं के आधार पर ही निर्देश देते हैं।

2) मानसिक शांति या भय दूर करने के लिए पूजा

बहुत-से लोग भीतर ही भीतर चिंताओं से घिरे रहते हैं। उन्हें लगता है कि दीप या धूप जलाने से भगवान प्रसन्न होंगे, दुर्भाग्य दूर होगा और भाग्य सुधरेगा।
ऐसी भावना से वे घर या मंदिर में दीपक जलाते हैं।

3) केवल भगवान से जुड़ने की सरल इच्छा से होने वाली पूजा

कुछ लोग न तो दुर्भाग्य दूर करने के लिए पूजा करते हैं और न सिर्फ परंपरा के कारण। वे इसलिए पूजा करते हैं कि उन्हें लगता है कि भगवान से जुड़ने के लिए कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए।
दीपक या अगरबत्ती जलाना उन्हें सहज लगता है।
यह भावना पवित्र है, भले ही अभी प्रारंभिक अवस्था में हो।

4) वे साधक जो सही मार्गदर्शन पाकर मोक्ष की ओर बढ़ते हैं

कुछ लोग—जिन्हें सच्चा शास्त्रज्ञान और उचित मार्गदर्शन मिलता है—जीवन का अंतिम लक्ष्य दुःखों से मुक्ति और मोक्ष-प्राप्ति मानते हैं।
वे भगवान के धाम के नित्य आनंद के आकांक्षी होते हैं।
ऐसे साधकों के लिए दीप-धूप न तो आवश्यक हैं और न अनिवार्य।
वे गीता के बताए किसी भी मार्ग का अनुसरण करते हैं—
कर्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, जप-योग, या शरणागति-योग।

तो क्या दीप-धूप आवश्यक हैं?

उत्तर सरल है:

यदि भक्ति के साथ किया जाए तो थोड़ा दीप-धूप जलाना ठीक है;
और न जलाना भी उतना ही उचित है।

क्यों?

क्योंकि मुख्य शास्त्रों में इसका कोई अनिवार्य विधान नहीं है, और भगवान की कृपा का केन्द्र बाहरी वस्तुएँ नहीं—आंतरिक भावना और आध्यात्मिक ज्ञान है।

वैदिक दृष्टि

वैदिक साहित्य में दीप-धूप को आवश्यक नहीं माना गया है।
वहाँ अग्नि-केंद्रित यज्ञ प्रमुख हैं, जिनमें आहुति अग्नि में दी जाती है।
परंतु भगवद् गीता कहती है:

“ज्ञान-यज्ञ सभी द्रव्य-यज्ञों से श्रेष्ठ है।” (4.33)

भगवान गीता शास्त्र-अध्ययन—सुनना, पढ़ना, समझना और जीवन में लागू करना—को ही ज्ञान-यज्ञ बताते हैं।

इस दृष्टि से:

यदि आप भगवद् गीता, रामचरित, या भागवत-पुराण का अध्ययन करते हैं,
तो वही ज्ञान-यज्ञ है—दीप-धूप से कहीं अधिक श्रेष्ठ।

यदि फिर भी आप पवित्र वातावरण बनाना चाहते हैं, तो एक-दो अगरबत्तियाँ जला सकते हैं, किन्तु तेल-दीपक रोज़-रोज़ जलाने से बचें।

भक्ति-योग के दृष्टिकोण से

भक्ति की गहराई दीप-धूप में नहीं, भावना में होती है; फिर भी आरंभ में वे भावना जगाने में सहायक हो सकते हैं।
समर्पण, स्मरण, ध्यान, दान, सेवा और भगवान के नाम का जप—ये भगवान को अधिक प्रिय हैं।
जब हृदय निर्मल होता है, तो कभी-कभी आँखों में आँसू भर आते हैं।
ऐसे दो आँसुओं में दो हज़ार दीपकों से अधिक आध्यात्मिक शक्ति होती है।

कर्म-योग और जप-योग के दृष्टिकोण से

कर्म-योग में किसी बाहरी साधन की आवश्यकता नहीं।
हर कर्म को ईश्वर-अर्पण मानकर—निष्काम भाव से, अनासक्त भाव से—करना ही मुक्ति की ओर ले जाता है।

जप-योग में भी दीप-धूप की आवश्यकता नहीं।
“राम” या “कृष्ण” का एक सच्चा, हृदयपूर्ण उच्चारण, दर्जनों दीपक जलाने से श्रेष्ठ है।

निष्कर्ष

भक्ति, ज्ञान, या मोक्ष—किसी के लिए भी दीप-धूप अनिवार्य नहीं हैं।

यदि प्रारंभ में आप इनका उपयोग करते हैं, तो कुछ बातों का ध्यान रखें:

चूँकि ये केवल बाहरी साधन हैं, इसलिए दीपक का उपयोग न्यूनतम हो (जैसे सिर्फ आरती में), क्योंकि दुर्घटना की आशंका रहती है। आरती में भी यदि कपूर का प्रयोग हो तो वह आरती के बाद बुझ जाता है जिससे दुर्घटना की संभावना है नष्टहो जाती।

लगातार धुआँ दीवारें काली कर देता है, और तेल का व्यय भी है।
वही धन यदि दान में—चिड़ियों को दाना डालने या किसी ज़रूरतमंद की मदद में—लगा दें, तो अधिक कल्याण होता है।

सुगंध के लिए बस दो अगरबत्तियाँ पर्याप्त हैं।

बहुत-से लोग नदियों में दीप-दान करते हैं; वही धन यदि गरीबों को दे दिया जाए, तो उसका फल कहीं अधिक होता है।

कुछ पुराणों ने दीप-दान की प्रशंसा की है, परंतु गीता जैसे ग्रंथ इस प्रकार की विधियों को प्रोत्साहित नहीं करते।

भगवान वास्तव में क्या चाहते हैं?

निर्मल हृदय,
श्रद्धा, ज्ञान,
प्रेम,
स्मरण, दान,
पर-सेवा,
और समर्पण।

यदि आप गीता, भागवत-पुराण और रामचरित का नियमित अध्ययन करेंगे,
तो शीघ्र ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि भगवान तक पहुँचने का मार्ग बाहरी वस्तुओं से नहीं, बल्कि आंतरिक भावना और आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित होता है।

इसका अर्थ यह नहीं कि बाहरी प्रतीकों को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए;
केवल इतना कि उनका उपयोग न्यूनतम होना चाहिए।

हरि शरणम्।

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