5 दिसंबर 2025

कल जब मैं न्यूयॉर्क पहुँचा और जॉन एफ. कैनेडी एयरपोर्ट से मैनहैटन स्थित अपने मित्र श्री राहुल और उनके घर पहुँचा तो काफ़ी देर हो चुकी थी। सोने का समय हो गया था। थोड़ी-सी बातचीत के बाद हम दोनों अपने-अपने कमरों में चले गए थे।

आज सुबह उठकर मैं लिविंग रूम में आता हूँ। यह एक बड़ा-सा हाल है, जिसमें किचन, डाइनिंग स्पेस और एक अलग बैठने की भी व्यवस्था है।

लिविंग रूम—जिसे भारत में ड्रॉइंग रूम भी कहते हैं—की दो बाहरी दीवारों पर बड़ी-बड़ी शीशे की खिड़कियाँ लगी हैं, जिनसे न्यूयॉर्क शहर की सघन इमारतें दिखाई देती हैं। मित्र का घर एक ऊँची इमारत के 19वें फ़्लोर पर है, इसलिए नगर का स्थापत्य मेरे मन में प्राथमिक रूप से अंकित हो रहा है।

न्यूयॉर्क का स्थापत्य लंदन से बहुत भिन्न है। प्रथम दृष्टि में यह भारत के पटना नगर की याद दिलाता है—विविध स्थापत्य वाली छोटी-बड़ी इमारतें, एक-दूसरे से सटी हुई, जिनका कोई समन्वित सौंदर्य-बोध नहीं बनता जैसा लंदन में सहज बन जाता है। आसमान में लंदन जैसी श्वेत-श्याम मेघ-मालाएँ भी अनुपस्थित हैं।

कहीं छोटा मकान, उसके पास बड़ा; कहीं लाल रंग, कहीं पीला; कहीं एक्सपोज़्ड ब्रिक, कहीं प्लास्टर किया हुआ। लंदन से आए हुए मन के लिए यह दृश्य मानो एक सौंदर्य-शास्त्रीय आघात है। लंदन के चैरिंग रिहायशी इलाकों में लगभग सभी घर एक्सपोज़्ड ब्रिक के, एक-सी ऊँचाई और एक-से स्थापत्य में बने होते हैं; कोई ऊँची इमारत बीच में अचानक नहीं उभरती।
यहाँ, मानो जिसने जो चाहा, वैसा बना लिया।

जब मैं चारों ओर दृष्टि दौड़ाता हूँ तो क्षितिज पर स्वतंत्रता की मशाल थामे हुई स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी प्रकट होती है—एक अर्ध-पारदर्शी बिंब की तरह। उसी क्षण प्रतीत होता है कि होठ हिल रहे हैं और मेरे कानों में एक आवाज गूँजती है—

“मैं तुम्हारे चेहरे की हैरानी देख रही हूँ। इंग्लैंड से तुलना कर रहे हो। इंग्लैंड ठहरा हुआ देश है, अमेरिका भागता हुआ देश।
हम सौंदर्य पर मोहित होकर रुकना नहीं चाहते। हमारे लिए सौंदर्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है—उपयोगिता।
जमीन का उपयोग, आसमान का उपयोग—यही हमारे प्रमुख जीवन-मूल्य हैं।
हमारा सर्वोच्च मूल्य है स्वतंत्रता। यह स्वतंत्रता की मशाल है,
यहाँ व्यक्ति बहुत हद तक अपनी मर्जी से जी सकता है।
कुछ भी कहने, कुछ भी करने की स्वतंत्रता—तुम धीरे-धीरे इसे हर कदम पर देखोगे। अपने आप को तैयार करो, तभी हमारी आत्मा को समझ पाओगे।”

मैं प्रतिक्रिया दे पाता, उससे पहले ही स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का वह बिंब आकाश में घुल का निराकार हो जाता है।

मैं श्री राहुल के लिविंग रूम पर एक गहरी दृष्टि डालता हूँ। बड़ा सुंदर, शांत, सौंदर्य-बोध से युक्त कक्ष। कोई अत्यधिक महँगी वस्तु नहीं, पर दीवारों पर बड़े-बड़े तैल-चित्र लगे हैं, जो चित्रकला के प्रति किसी के गहन आकर्षण को व्यक्त कर रहे हैं।

यह घर एक ऐसे दंपती का है जो मध्यम-वर्गीय पृष्ठभूमि से आते हुए भी सौंदर्य और सुरुचि का परिष्कृत भाव रखते हैं। श्री राहुल एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी थे, जिन्होंने सेवा छोड़कर संयुक्त राष्ट्र में कार्य स्वीकार किया और तब से यहीं रहते हैं। उनकी धर्मपत्नी भी संयुक्त राष्ट्र में कार्यरत हैं। वे अभी भी सेवा में हैं, जबकि श्री राहुल सेवानिवृत्त हो चुके हैं।

जब मैं दीवारों पर टँगे चित्रों को निहार रहा होता हूँ, तभी राहुल वहाँ आ जाते हैं। वे मुझे एक कोने में रखे उस सिंगल-सोफ़े पर बैठने के लिए कहते हैं, जिसके ऊपर एक बोधि-वृक्ष जैसा गमले में लगा एक बड़ा सा पेड़ है, और पास ही बुद्ध की एक तस्वीर भी। शायद यहीं राहुल बैठ कर पढ़ते हैं।
मैं सोचता हूँ—सोफ़ा तो अच्छा है, पर उठते समय मेरी ऊँचाई के कारण वृक्ष की डालियाँ शायद मेरे सिर से टकराएँ—यह अनुभव मुझे जीवन में कई बार हुआ है। इसलिए मैं उसके बगल वाले सोफ़े पर बैठ जाता हूँ। राहुल भी मेरे सामने एक लंबे सोफे पर बैठ जाते हैं।

कमरे में दो ओर किताबों की मीनारें हैं। ये ऐसे बुकशेल्फ़ हैं जिनमें किताबें खड़ी नहीं बल्कि क्षैतिज रखी गई हैं—नीचे से ऊपर तक—मानो पुस्तकों की दो ऊँची मीनारें हों और बुकशेल्फ़ स्वयं ओझल हो गया हो।

अद्भुत सौंदर्य-बोध!

जब मैं कमरे की सादगी और कलात्मक साज-सज्जा की प्रशंसा करता हूँ, तो राहुल बताते हैं कि यह सारी सजावट उनकी धर्मपत्नी मीना जी की रचना है। बोधि-वृक्ष भी उन्हीं ने लगाया है और इसी के नीचे बैठकर राहुल प्रायः पुस्तकें पढ़ते हैं।
केवल दीवारों पर लगे तैल-चित्र राहुल के बनाए हुए हैं; पर उनका कहाँ लगना है, यह निर्णय मीना जी का ही होता है।

राहुल हँसते हुए कहते हैं कि घर में किस रंग की वस्तु कहाँ रहेगी—यह सब उनकी पत्नी ही तय करती हैं। मैं उनकी इस वाक्य में छिपी उस सर्वमान्य पति-वेदना को सहज समझ जाता हूँ और उन्हें आश्वस्त करता हूँ कि यह केवल उनकी नहीं, एक सार्वभौम अनुभूति है।

जहाँ तक चित्रों का प्रश्न है—किसी भी घर में किसी पुरुष द्वारा बनाए गए इतने सारे सुंदर तैल-चित्र मैंने पहले नहीं देखे। उनमें केवल कला नहीं, बल्कि संवेदना भी है—विशेषकर श्रमिक-वर्ग की।
एक चित्र में दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक के सामने मशीन से घास काटता मजदूर है; दूसरे में मजदूरों की पंक्ति बैठी है, जिनके पैरों के नीचे सीमेंट की बोरियाँ रखी हैं। कॉरिडोर में लगे एक चित्र में एक ब्लैक अफ्रीकन युवा श्रमिक की तस्वीर है।

श्री राहुल में धर्म का गहरा रुचि-बोध विकसित हुआ है—और यही हमें एक करता है। वे कई वर्षों से मुझे न्यूयॉर्क आमंत्रित कर रहे थे कि मैं यहाँ भी अपना धर्म-कार्य प्रारंभ करूँ। उन्हीं के आग्रह और प्रेम पर मैं यहाँ आया हूँ और उन्हीं के घर ठहरा हूँ।

मनुष्य के भीतर अनेक रूप छिपे होते हैं, जिनका पता वर्षों बाद चलता है। हैदराबाद की पुलिस अकादमी में राहुल एक ‘ब्राउन अंग्रेज’ कहे जाते थे—सबसे तेज़ गति से अंग्रेज़ी बोलने वालों में एक। लोग उन्हें ‘कोकोनट’ तक कहते—बाहर से भूरा भारतीय, भीतर से श्वेत अंग्रेज़।

पर उनके भीतर एक कलाकार और एक धर्मप्रिय व्यक्ति भी था—यह न मैंने जाना था, न किसी और ने—जबकि अकादमी में मेरा उनसे अत्यंत निकट संबंध था।

लिविंग रूम में बैठकर मैं लंदन के अपने अनुभव उनके साथ साझा करता हूँ, और फिर अमेरिका में अपने मिशन को आगे बढ़ाने की योजनाएँ बताता हूँ।
हमारी वार्ता धीरे-धीरे गति पकड़ने लगती है…

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