4 दिसंबर, 2025
“कृपया अपनी सीट-बैल्ट बाँध लें”—इस घोषणा के साथ मेरे विचारों की गति क्षणभर रुक जाती है, पर विमान रनवे पर तीव्र वेग से दौड़ पड़ता है। कुछ ही पलों में वह बादलों को चीरता हुआ आकाश से बातें करने लगता है। नीचे सघन मेघ-मंडल फैला हुआ है।
थोड़ी देर बाद ड्रिंक्स सर्व करने वाली ट्रॉली आती है। विभिन्न बोतलें रखी हैं; उनमें क्या है, मैं नहीं जानता। इसलिए केवल पानी और संतरे का रस लेता हूँ। उसके बाद एक विमान-परिचारिका आकर केवल मुझसे पूछती हैं, “हैव यू ऑर्डर्ड ए स्पेशल मील?”
मैं उत्तर देता हूँ, “I am a vegetarian, so I would like a vegetarian meal. I don’t know what a special meal means”
मैं सिर्फ यह स्पष्ट करता हूँ कि मैं शाकाहारी हूँ और शाकाहारी भोजन चाहता हूँ।
परिचारिका कुछ भ्रमित-सी दिखती हैं और लौट जाती हैं। मुझे विश्वास है कि टिकट बुक करते समय मेरे बेटे ने वेजिटेरियन मील का विकल्प अवश्य दिया होगा; अतः भोजन उपलब्ध होने का भरोसा है।
मैं अनेक देशों में जा चुका हूँ—इंग्लैंड, फ्रांस, साउथ कोरिया, हांगकांग, थाईलैंड और जापान—और शाकाहार का प्रचलन अत्यंत सीमित पाया। बाहर का भोजन ग्रहण करने से मैं प्रायः बचता रहा। कभी कंडेंस्ड मिल्क और ब्रेड से काम चलाता, कभी सूखा दूध काम आता। दक्षिण कोरिया में एक पार्टी में सैंडविच सुरक्षित लगा, पर उसमें भी मांस की लाल स्लाइस दिख गई; मैंने कुछ नहीं खाया।
तब से मैंने यह सीख लिया कि विदेश यात्राओं में मेरा सबसे सुरक्षित साथी सत्तू है—भुने चने का पाउडर—न मसाले की जरूरत, न पकाने की। कहीं भी पानी में घोलिए, नमक या चीनी मिलाइए, और पेट भर जाता है। फल भी विश्व में शाकाहारी यात्रियों के लिए बहुत सुरक्षित विकल्प हैं।
भारत के बाहर अधिकांश देशों में पशुओं के प्रति करुणा का भाव विकसित नहीं हुआ। सनातन धर्म ने ही ‘रेवरेंस फॉर लाइफ’—जीवन के प्रति आदर—का भाव गहराई से प्रतिपादित किया। मैंने विदेशी उत्स के सभी प्रमुख धर्मग्रंथ भी पढ़े हैं; भारत के बाहर उत्पन्न सभी धर्मों में यह लिखा मिलता है कि पशु मनुष्य के उपयोग हेतु बने हैं और उन्हें मारकर खाने में कोई दोष नहीं है। कुछ देशों—विशेषकर चीन जैसे नास्तिक देशों—में तो लगभग हर जीव खाया जाता है। पार्कों में कुत्तों को लटका कर जीवित जला कर खाना भी ‘डेलिकेसी’ माना जाता है। जीवो को होने वाले कष्ट और पीड़ा का कोई मोल नहीं होता।
ऐसे वातावरण में भारत जैसा शाकाहार-केंद्रित विचार स्वाभाविक रूप से विकसित ही नहीं हो सकता था। विदेशी संस्कृतियों और धर्मों से मिश्रण के बाद भारत में मांसाहार बढ़ा अवश्य है, पर आज भी O.E.C.D. की सूची में प्रति-व्यक्ति मछली और मांस का संयुक्त उपभोग भारत में सबसे कम है।
हालाँकि, अब विश्व में शाकाहार का चलन बढ़ रहा है। यह करुणा के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि विज्ञान ने निर्णायक रूप से बताया है कि मांसाहारियों की आयु औसतन छह वर्ष कम हो जाती है—मांस-प्रधान रोगों के कारण। एक सर्वेक्षण में तो यह पाया गया कि ईसाइयों के बीच जो एक संप्रदाय है सेवंथ डे एड्वेंटिस्ट, जिसमें मांस मछली तंबाकू आदि वर्जित है, सबसे लंबा जीता है।
जब मैं विद्यार्थी था—लगभग पचास वर्ष पहले—एक विवाद था कि क्या शाकाहारी भोजन में सभी अमीनो अम्ल होते हैं। मैंने उस समय एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका और चिल्ड्रेन्स ब्रिटानिका दोनों में इस विषय की प्रविष्टियाँ पढ़ीं थीं। एक में सभी अमीनो एसिड्स होने की पुष्टि थी; दूसरे में थोड़ी शंका।
अब यह विवाद समाप्त हो गया है। हार्वर्ड हेल्थ और मेयो क्लिनिक दोनों की साइटों पर स्पष्ट लिखा है कि पूर्ण शाकाहार में किसी अमीनो एसिड की कमी नहीं होती।
भारत में भी मांसाहार रहा है; ऐसा कहना गलत होगा कि यहाँ कभी पशु-हिंसा नहीं हुई। वेदों में पशु-बलि का उल्लेख है। कुछ आधुनिक वैदिक विद्वान इस बात का खंडन करते हैं, पर मनुस्मृति में भी मांसाहार का आंशिक समर्थन और निषेध दोनों मिलते हैं।
इस संदर्भ में भागवत पुराण में दो बातें मिलती हैं—
(1) पशु-बलि देने वालों के नरक में जाने का वर्णन,
(2) तथा यह कि कुछ पुरोहितों ने अपने स्वार्थ से बलि-प्रथा को बढ़ावा दिया ताकि ‘भगवान के प्रसाद’ के नाम पर उन्हें भी मांस का स्वाद मिले।
किन्तु भगवद गीता में—सभी प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा और सात्त्विक आहार का स्पष्ट उपदेश है।
कुछ देर बाद रात्रि-भोजन की ट्रॉली आती है। एक तीखी, अप्रिय गंध—शायद मांसाहारी भोजन की—उठती है। वह मुझसे सहन नहीं होती, इसलिए मैं नाक पर रूमाल रख लेता हूँ। मैं परिचारिका से पूछता हूँ कि क्या शाकाहारी भोजन उपलब्ध है। वह जाँचकर बताने को कहती है।
मेरे बगल में बैठी एक ब्रिटिश महिला कहती हैं कि उन्हें वीगन भोजन चाहिए—अर्थात पौधा-आधारित और पूरी तरह दुग्ध-रहित। सुन कर संतोष मिलता है।
पश्चिम में अब एक ‘एनिमल राइट्स’ नाम का छोटा सा आंदोलन चल पड़ा है—धर्म से नहीं, बल्कि मानवता की दृष्टि से—जो पशु-हत्या को अमानवीय मानता है।
मेरा विमान जे. एफ. के. एयरपोर्ट, न्यूयॉर्क पर उतर चुका है। मैं इमीग्रेशन चेक से निकलकर बैगेज क्लेम पर पहुँचता हूँ। गोल-गोल घूमती बेल्ट पर सूटकेस आते जा रहे हैं। लोग आशंकित रहते हैं कि कहीं किसी और का मिलता-जुलता सूटकेस न उठा लें। इसी कारण मेरे सूटकेस के ताले पर लाल रंग की थोड़ी-सी पेंट लगा दी गई है। यह भय काल्पनिक है—ऐसा मैंने कभी किया हो, इसका प्रमाण नहीं। पर यह सही है कि पहचान में सुविधा अवश्य हो जाती है, क्योंकि आजकल एक ही रंग और प्रकार के सूटकेस बहुत बनते हैं।
मैं अपना सूटकेस पहचानकर उठाता हूँ और पास ही रखी कतार में से एक ट्रॉली लेने बढ़ता हूँ। वहाँ एक श्वेतवर्ण गार्ड खड़ा है। वह कहता है, “सिक्स डॉलर्स।”
मैं चकित होता हूँ—भारत में ट्रॉली निःशुल्क मिलती है, इंग्लैंड में भी। तो क्या अमेरिका में इतना धन-संकट है? या यह पूर्ण व्यापारी देश है? ट्रॉली पर भी 600% टैरिफ!
मैं सोचता हूँ—मेरे पास सामान भी सीमित है, और सूटकेस में पहिए भी हैं—तो ट्रॉली की आवश्यकता क्या है?
मैं सूटकेस खड़ा कर मोबाइल निकालता हूँ ताकि घर पर सूचना दे सकूँ कि मैं सुरक्षित पहुँच गया हूँ। भारत व्यक्ति-प्रधान देश नहीं, परिवार प्रधान देश है; इसलिए वहाँ परिवार परस्पर गहरे जुड़े रहते हैं; चिंता करना उनके स्वभाव का अंग है। अतः सभी चिंतित होंगे—उन्हें और लंदन में अपने हितैषियों को बताना आवश्यक है कि मैं न्यूयॉर्क पहुँच गया।
पर जे.एफ.के. का फ्री वाई-फाई कनेक्ट नहीं होता—एक के बाद एक विज्ञापन। अंत में उन परत दर परत विज्ञापनों के बीच से मुश्किल से से वाई-फाई कनेक्ट करता हूँ और एक आध लोगों को संदेश भेजकर बाहर निकलने को बढ़ता हूँ।
फ्री वाई-फाई तक पहुँचाने से पहले भी विज्ञापन—और विज्ञापन!
अद्भुत व्यापारी देश है।
मैं न्यूयॉर्क, मैनहट्टन स्थित अपने सहपाठी, मित्र श्री राहुल सूर के घर पहुँच चुका हूँ। रास्ते में अंधकार और रोशनी के बीच शहर की कोई स्पष्ट छवि नहीं बन पाती।
घर पहुँचकर भी सूचना नहीं दे पाता, क्योंकि घर के वाई-फाई का पासवर्ड चाहिए। मेरे मित्र सोने चले गए हैं, इसलिए मैं भी अपने शयन-कक्ष में चला जाता हूँ।
उनकी दिनचर्या समयबद्ध और नियमित है। रात्रि-जागरण से पूर्णतः मुक्त—देखकर अच्छा लगता है।
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