आज 4 नवंबर 2025 है।
इंग्लैंड में मैं 26 अक्टूबर को आया था। लगभग सवा महीने हो रहे हैं। समय इतनी तेजी से गुजरा कि यद्यपि यह सोच कर आया था कि इस बार मैं इंग्लैंड और अन्य देशों का हर दिन का यात्रा-वृत्तांत जरूर लिखूंगा, मगर लिख नहीं पाया। लेकिन समय मिलते ही लिखूंगा जरूर। और लिखने के बाद कड़ियों को काल-अनुक्रम से सजा दूंगा।

दोपहर के ढाई बजे हैं। घर के सामने आकर एक टैक्सी रुकती है। यह ऊबर नहीं; एक भारतीय की चलाई हुई टैक्सी है—वही व्यक्ति जिससे विनोद और जयश्री का पुराना, आत्मीय परिचय बन चुका है।

यह परिचय भी अपने आप में एक कथा है। एक दिन विनोद के पास इस टैक्सी-चालक का फोन आया कि “आप जो मंदिर बना रहे हैं, उसका मैं भी आजीवन सदस्य बनना चाहता हूँ।” उसे मालूम था कि लाइफ मेंबर बनाने के लिए 2000 पाउंड देने होते हैं—जो भारतीय मुद्रा में लगभग ढाई लाख रुपए होते हैं।
उसने विनोद जी से विनती की कि यदि वे अपनी ओर से अभी यह राशि जमा कर दें तो वह उन्हें कई किस्तों में चुका देगा। विनोद का उससे कोई परिचय न था। पर जयश्री ने कहा—“आप दे दीजिए, वह अवश्य लौटा देगा। अच्छे काम के लिए मांग रहा है।”
और मैंने देखा है कि जयश्री की कही बात, विनोद टालते नहीं—सहर्ष, बिना प्रतिरोध के यह बात भी उनके द्वारा मानी गई। और उन्हें बेहद हैरानी तब हुई, जब अगले दिन ड्राइवर ने वह राशि विनोद के अकाउंट में डाल दी। ईश्वर ने उसे ये पैसे कहीं से तुरंत भेज दिए!!

भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि स्त्रियों में “कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा” ये गुण होते हैं। जयश्री में ‘मेधा’ का यह रूप स्पष्ट दिखाई देता है—ठीक समय पर, जहाँ किसी को विचार भी न आए, वहाँ उपयुक्त सलाह देने की क्षमता। पढ़ी-लिखी होने पर भी पूर्ण सहजता से गृहिणी का जीवन अपनाना, और उसमें गर्व अनुभव करना, यह भी उनका विलक्षण गुण है। विनोद IT कंसल्टेंट हैं; अच्छी आय है; पर जयश्री पर कभी यह दबाव नहीं कि वे भी काम करें—और न ही उन्हें ऐसा कोई अभाव। हमेशा प्रसन्न, सरल, ऊर्जा से भरी—मंदिर के किसी कार्यक्रम में चालीस लोग आ जाएँ, तो चालीस के लिए भोजन बनाकर ले जाना उनके लिए बोझ नहीं, आनंद है।

विनोद और जयश्री—एक ऐसी दिव्य जोड़ी, जिसमें विनोद मध्य प्रदेश के और जयश्री महाराष्ट्र की। विवाह के बाद विनोद भी कुछ-कुछ मराठी हो गए हैं। दोनों ही शांत, सहयोगी, और मंदिर के लिए तन-मन-धन से जुटे रहने वाले। डार्टफोर्ड के नए मंदिर को सँवारने में ये दोनों सुबह से रात तक लगे रहना मानो अपना नैसर्गिक धर्म समझते हैं।

लंदन में UPI का कोई समकक्ष नहीं। भारत की जो सुविधा—एक खोमचे वाले को भी QR कोड से भुगतान करने की—दुनिया को विस्मित कर देती है, उसका अंश-मात्र भी यहाँ उपलब्ध नहीं। स्विट्ज़रलैंड में मुझे इसी बात की पुनः पुष्टि मिली। कोई भी विदेशी भारत पहुँचकर यही अनुभव करता है कि तकनीकी सुविधा में भारत कई क्षेत्रों में कहीं अधिक अग्रणी हो चुका है।

इसीलिए टैक्सी का भुगतान नकद ही करना होता है—हीथ्रो जाने के लिए लगभग सौ पाउंड यानी बारह हजार रुपए देने हैं। मेरे पास फॉरेक्स कार्ड है, और मैं ATM जा कर कैश निकालना चाहता हूँ। पर विनोद-जयश्री ने पहले ही टैक्सी का भुगतान कर दिया है और मुझे ATM के जाने को बिल्कुल तैयार नहीं।

वे मुझे हीथ्रो तक कार से छोड़ने की सोचते, पर शाम के ट्रैफ़िक में 100 किलोमीटर जाना, और 100 किलोमीटर लौटना—वह भी लंबी जाम-भरी सड़कों पर—अत्यंत कठिन होता। इसलिए मैंने आग्रह कर भी उन्हें कष्ट नहीं लेने दिया।

मैंने कहा कि जेब में थोड़ा कैश रहना चाहिए, पर जयश्री ने मुस्कुराकर मना कर दिया, जैसे कहती हों—“सब व्यवस्थित है।”

मुझे विदा देने गणेश भी आए—जिन्हें लोग प्रेम से “लंदन गणेश” कहते हैं। हैदराबाद में सात फीचर फिल्में बना चुके हैं, और लंदन में दो बना रहे हैं। मंदिर को आगे बढ़ाने में उनका योगदान अद्भुत है। उनका अनोखा गुण यह है कि फ़ोन पर ही दो-चार मिनट में कोई भी काम निपटा देते हैं—मानो नेटवर्क उनके लिए नहीं, वे नेटवर्क के लिए बने हों।

सब जानते थे कि अब मैं अमेरिका, फिर अफ्रीका के कई देशों, और उसके बाद मध्य-पूर्व से होते हुए भारत पहुँचूँगा। मेरी यात्राओं में जहाँ-जहाँ जाना था, वहाँ-वहाँ मंदिर के भक्तों ने ऐसे घर खोज लिए जहाँ मांस-मछली न पकती हो, और जहाँ मुझे सात्त्विक भोजन तथा आत्मीय वातावरण मिले।

इन सबके बीच, एक बात और स्पष्ट हुई—मेरी अपनी यात्राएँ भले नई हों, पर इनका स्नेह, मानो पुरानों जैसा।

टैक्सी में बैठते हुए मन भारी भी था और कृतज्ञ भी।

लंदन में रहकर भी इन लोगों ने भारतीयता को जरा भी मलीन नहीं होने दिया। “गुरुजी” कहकर सम्बोधित करना, सम्मानपूर्वक चरण-स्पर्श, बच्चों को भी ऐसा संस्कार देना, हर सुविधा-असुविधा का अत्यंत आदरपूर्वक ध्यान रखना—मानो लंदन में एक छोटा-सा भारत बस गया हो।

मैं इनके घर में लगभग 20 दिन रहा। इनके बड़े बेटे कार्तिक ने मेरे आने की खबर सुन कर, अपना कमरा स्वेच्छा से खाली कर दिया।

मंदिर की टीम से प्रतिदिन मेलजोल रहा। इन दिनों में विनोद-जयश्री और अन्य संचालकों ने मुझे एक पेनी तक खर्च नहीं करने दी। जहाँ जाना होता, अपनी कारों से ले जाते। इस समर्पण ने मेरे मन में एक नयी आशा जगा दी।

मैंने इन्हें कहा कि 500 मंदिरों के बीच, एक और 501वाँ मंदिर न बने—बल्कि यह ऐसा मंदिर बने जो बाकी मंदिरों का मार्गदर्शक और आदर्श बन जाए। मंदिर की पूरी उपयोगिता और संभावनाएं सभी लोगों को समझ में आने लगें।
इन्होंने इसे सहजता से स्वीकार किया और उसी दिशा में कार्य प्रारम्भ कर दिया।
मैंने सुझाव दिया कि मंदिर में एक छोटी-सी ही सही, पर आध्यात्मिक लाइब्रेरी अवश्य हो—जहाँ लोग शास्त्र घर ले जा सकें, या बैठकर अध्ययन कर सकें ताकि उनकी धार्मिक आध्यात्मिक साक्षरता विकसित हो। आज के हिंदू भारत में भी और इंग्लैंड में भी धार्मिक आध्यात्मिक रूप से निरक्षर ही है। और इसमें दोष उनका नहीं, दोष किसी और का है। इस पर क्षणभर में सहमति बनी, और लाइब्रेरी तैयार भी हो गई।

भारत लौटकर मैं इनके लिए आध्यात्मिक ग्रंथों का बड़ा संग्रह भेजूँगा—एक भक्त-ट्रांसपोर्टर इसे निःशुल्क इंग्लैंड तक लाने को तत्पर है।

टैक्सी हीथ्रो की ओर दौड़ रही है।
खिड़की के शीशे से पीछे छूटता हुआ लंदन—उसके घरों का उत्कृष्ट स्थापत्य, सड़क किनारे पहाड़ियों-जैसी ढलानों पर महीन कटाई वाली घास, जैसे धरती ने किसी विशाल हरित कालीन को ओढ़े रखा हो—सब पीछे छूटते जा रहे हैं।

अब विमानों के उड़ने और उतरने की छवियां दिखने लगी हैं—जो संकेत दे रही हैं कि हीथ्रो निकट है।

एयरपोर्ट पर टैक्सी-चालक मेरा सामान ट्रॉली पर रखकर झुककर प्रणाम करता है। मैं उसे धन्यवाद देकर विदा करता हूँ।
और इस क्षण, यह अनुभूति भीतर गहराती है—

लंदन की स्मृतियाँ मेरे मन में इसलिए एक स्वर्ण रेखा की तरह अंकित नहीं हो गई हैं कि वह अदभुत महानगर है; बल्कि इसलिए कि वहाँ कुछ भारतीय हैं, जिन्होंने अपनी भारतीयता को अद्भुत गरिमा और स्नेह के साथ धारण किया और जिया है।

मैं ट्रॉली पर सामान का बोझ और हृदय में आभार का भार लिए हीथ्रो में प्रवेश करता हूँ।

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