4 नवंबर 2025।
लंदन को विदा कहकर, इमिग्रेशन प्रक्रिया और सुरक्षा-जांच पूरी करने के बाद मैं ब्रिटिश एयरवेज के विशाल विमान में प्रवेश करता हूँ।
विमान तीन विभागों में बँटा है। प्रवेश करते ही सर्वोच्च श्रेणी (बिज़नेस क्लास) आती है, जहाँ दो सीटों के बराबर स्थान को एक यात्री के छोटे-से कार्यालय की तरह बनाया गया है—आरामदायक बैठने की जगह और बगल में लैपटॉप व अन्य वस्तुएँ रखने के लिए एक सुव्यवस्थित पटल।
उसके बाद मध्य श्रेणी, और अंत में इकोनॉमी क्लास।
पुराणों और रामायण आदि में विमान-यात्राओं के उल्लेख मिलते हैं, पर विमानों का उपयोग अत्यन्त विशिष्ट व्यक्तियों में भी अति विशिष्ट व्यक्तियों तक ही सीमित था। इस विमान में बैठा कोई भी व्यक्ति उन विमानों पर नहीं बैठ सकता था। यह सामर्थ्य विज्ञान और तकनीक ने ही मनुष्य को दिया है।
लेकिन विज्ञान अपने साथ बहुत-सी और चीज़ें भी लेकर आया—जिनका फल मनुष्यता को भुगतना पड़ रहा है। कारण सरल है: ज्ञान के साथ यदि विवेक न जुड़ सके तो ज्ञान घातक भी हो जाता है।
विद्यार्थी-जीवन में पढ़ा गया बर्ट्रेंड रसेल का निबंध “Knowledge and Wisdom” यहाँ स्मरण हो आता है। आज की शिक्षा-पद्धति में ‘विज़डम’ की चर्चा पीछे छूट गई है; केवल ‘नॉलेज’, और वह भी वस्तुतः ‘इनफॉर्मेशन’, प्रधान हो गई है।
भगवद्गीता विज़डम का एक महान स्रोत है।
विमान के उड़ान भरने की प्रतीक्षा में है। इस बीच मन में अनेक विचार उठते हैं।
विज्ञान ने पिछले पाँच–छः सौ वर्षों में इतनी तीव्र प्रगति कैसे कर ली?
उसके पहले यह सब क्यों नहीं बन पाया, जबकि मनुष्य का मस्तिष्क आज से 20 लाख वर्ष पहले भी लगभग इसी आकार का था—जैसा वैज्ञानिक बताते हैं?
अर्थात हार्डवेयर तो पहले से था; केवल वह सॉफ़्टवेयर नहीं था जो आज इस हार्डवेयर पर स्थापित है।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चिंतन के स्थान पर एक अन्य सॉफ़्टवेयर था—धर्म की पुस्तकों में कही गयी प्रत्येक बात पर बिना किसी विचार या परीक्षण के विश्वास। इस अंध-श्रद्धा ने मनुष्य की चिंतन-शक्ति और शोध-क्षमता को सहस्राब्दियों तक जकड़े रखा।
जिन लोगों की चिंतन-शक्ति उस अंध-श्रद्धा की बेड़ियों से मुक्त हुई, वे यूरोप के लोग थे। उन्होंने एक नई शक्ति प्राप्त की। यह आध्यात्मिक शक्ति नहीं थी; यह स्वतंत्र बुद्धि की शक्ति थी।
और इसी स्वतंत्र चिंतन के आधार पर वे प्रकृति के नियम खोज सके। उन्हीं नियमों के आधार पर आज ऐसे विमान बन पाए, जिनमें एक साथ सैकड़ों लोग उड़ान भर सकते हैं।
विमान उड़ते हैं क्योंकि मनुष्य ने केवल इतना किया कि एयरोडायनेमिक्स के प्राकृतिक नियमों को पहचान कर उन्हें यंत्रों पर लागू कर दिया।
मैंने लंदन में देखा कि जितने भी मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे बन रहे हैं, वे अधिकतर उन चर्च भवनों को खरीदकर बनाए जा रहे हैं जहाँ अब ईसाई लोग प्रार्थना करने नहीं आते।
और यह भी सत्य है कि यही वे समाज हैं, जो अब चर्च नहीं जाते, जिन्होंने यह विमान और ऐसे हजारों यंत्र बनाए, जिनसे मनुष्य प्रकृति पर अधिकार पाने लगा।
इसके विपरीत, वे समुदाय जो अपनी धार्मिक पुस्तकों से अंधविश्वास-पूर्ण ढंग से चिपके रहे, उनके नाम वैज्ञानिकों की सूची में लगभग अदृश्य हैं। इस विमान में वे भी बैठे हैं, पर इसे बनाने में उनका कोई योगदान नहीं रहा।
अफ्रीका में बोको हरम ने एक फ़तवा दिया कि स्कूलों में यह न पढ़ाया जाए कि वर्षा वाष्पीकरण से होती है—क्योंकि यह उनकी धार्मिक पुस्तक की बात से मेल नहीं खाता। जब स्कूलों ने यह निर्देश नहीं माना, तो विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने लगभग पाँच हज़ार बच्चों की हत्या कर दी।
एक ओर धर्म की पुस्तक पर ऐसा अंध-विश्वास; और दूसरी ओर किसी पुस्तक को केवल इसलिए पूरी तरह त्याग देना कि उसकी कुछ बातें वैज्ञानिक रूप से असत्य सिद्ध हो गईं—ये दोनों ही मनुष्य की बुद्धि की दो चरम प्रतिक्रियाएँ हैं।
गीता इन दोनों से बचाती है।
वह कहती है कि श्रद्धा के बिना ज्ञान नहीं मिलता—
श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्…” (गीता 4:39)
अर्थात, श्रद्धावान और संयमी व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त करता है।
आगे एक अन्य चेतावनी भी देती है (गीता 4.40)
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
अर्थात, अज्ञानी, अविश्वासी और संशयशील व्यक्ति नष्ट हो जाता है।
पर यह ध्यान रखने की बात है कि ये दोनों श्लोक आध्यात्मिक ज्ञान पर लागू होते हैं, सांसारिक विज्ञान पर नहीं। गीता कभी भी मनुष्य की विचार-क्षमता को, अध्यात्म के मामले में भी, बाधित नहीं करती।
क्योंकि गीता एक नया आयाम भी प्रस्तुत करती है जहाँ ईश्वर स्वयं मनुष्य को विचार-स्वतंत्रता देते हैं—
( गीता 18.63)
“इति ते ज्ञानमाख्यातं… विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।”
अर्थात, मैंने अपना विचार कह दिया। अब इसे पूर्ण रूप से विचारकर, जैसी इच्छा हो वैसा करो।
यह इच्छा की स्वतंत्रता का स्पष्ट विधान है—और यह भी कि ईश्वर की वाणी स्वीकारने के पहले यह देखना आवश्यक है कि वह वास्तव में ईश्वर-वाणी है भी या नहीं। कहीं कुछ मनुष्यों ने ईश्वर के नाम पर अपने लाभ के लिए कुछ गलत तो नहीं परोस दिया?
इसलिए जितना वैज्ञानिक ज्ञान ग्रहण करना हो करो, पर अंधविश्वास नहीं—विवेक बनाए रखो। ऐसे अंध- सामान्यीकरणों से बचें कि “जो वेद में नहीं वह कहीं नहीं”।
बुद्धि और श्रद्धा, ज्ञान और विवेक—इस संतुलन जैसा ढाँचा मैंने कहीं और नहीं देखा। इसके अलावा यह भी स्पष्टोक्ति गीता के अलावा कहीं नहीं देखी कि ईश्वर तक पहुंचने के कई मार्ग हैं : “ये यथा मां प्रपद्यंते…”, कि अहिंसा एक देवी गुण है और हिंसात्मकता एक आसुरी लक्षण, कि युद्ध अंतिम विकल्प है, कि सभी जीवों, सभी मनुष्यों में एक ही ईश्वर आत्मा के रूप में स्थित है…।
यही कारण है कि मैं गीता के प्रचार के लिए वैश्विक यात्रा पर निकला हूँ—इस यात्रा में भूमि तैयार करने, बीज डालने, और विभिन्न देशों में एक टीम खड़ी करने। बीज अंकुरित हो जाएंगे तो अगली यात्रा में लौटकर उगते पौधों को संभालना होगा।
मेरे विचारों की शृंखला अचानक रुक जाती है जब विमान-परिचारिकाएँ घोषणा करती हैं कि विमान उड़ान भरने वाला है और सीट-बेल्ट बाँध ली जाए।
मैं कमर की बेल्ट बाँध लेता हूँ और अपने विचारों की पतंग को भी धीरे से समेटकर मन के एक कोने में रख देता हूँ।
मेरे विचारों की गति अवरूद्ध कर विमान रनवे पर स्वयं तेज गति पकड़ने लगता है।

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