गीता जब आत्म–संयम की बात करती है, तो वह किसी कठोर साधना, दंड या स्वयं को पीड़ा देने की बात नहीं करती। वह बहुत सहज, बहुत मानवीय ढंग से कहती है कि अपनी इंद्रियों को, अपने मन को, और अपनी इच्छाओं को उचित मर्यादा में रखना—यही वास्तविक संयम है। यह मन को दबाना नहीं है; यह मन को दिशा देना है। यह इंद्रियों को खत्म करना नहीं है; यह उन्हें उचित स्थान देना है।
गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कहते हैं:
“रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥” (2.64)
जिसका मन राग और द्वेष से मुक्त है, और जिसकी इंद्रियाँ उसके अपने अधिकार में हैं, वह भीतर से शांति—एक सहज प्रसन्नता—प्राप्त करता है।
यह आत्म-संयम का प्रथम स्वर है: न दबाव, न हिंसा; केवल स्वच्छ भाव और संतुलित दृष्टि।
छठे अध्याय में भगवान एक और गहरी बात कहते हैं:
“उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥” (6.5)
मनुष्य अपने मन को ऊपर उठाए, गिराए नहीं। मन ही मित्र है और वही मन शत्रु भी बन सकता है। जिस दिन मन को सही दिशा मिल जाती है, उसी दिन साधना सरल हो जाती है।
और फिर वे कहते हैं:
“तत्रैकाग्रमनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः” (6.12)
मन को एकाग्र करो।
इंद्रियों को संयमित करो।
यही योग का आधार है।
इसी अध्याय में वे एक निर्णायक वाक्य जोड़ते हैं:
“बन्धुरात्माऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ॥” (6.6)
जिसने मन को जीत लिया है, वह अपने भीतर ही सबसे बड़ा सहायक पा लेता है।
इन श्लोकों का भाव एक ही है—
मन को पीड़ा देकर नहीं, मन को समझाकर चलाना है।
इंद्रियों को कुचलना नहीं, उन्हें संयम के भीतर रखना है।
यही भाव गीता में हर जगह मिलता है।
अब इसके ठीक विपरीत—आत्म-पीड़न
भारत की परंपरा में कभी-कभी कठोर तपस्याओं को, शरीर को कष्ट देने वाले साधनों को, महान माना गया—उपवासों से लेकर कठिन व्रतों तक।
लेकिन गीता इस पर एक अलग, बहुत स्पष्ट दृष्टि रखती है।
भगवान कहते हैं:
“कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥” (17.6)
जो लोग अज्ञानवश अपने शरीर को कष्ट देते हैं, वे समझ लें कि उसी शरीर में स्थित मैं भी कष्ट पाता हूँ। ऐसी वृत्ति आसुरी कही गई है।
और आगे वे जोड़ते हैं:
“मूढग्राहेनात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥” (17.19)
जो तप मूढ़तावश, अपने या दूसरों को पीड़ा देकर किया जाता है—वह तामस तप है।
वह गुरु के स्वर में, करुणा के स्वर में कहते हैं—
“अपने को मत सताओ।
मैं पीड़ा से नहीं, प्रेम से प्रसन्न होता हूँ।
मैं संयम में हूँ, आत्म हिंसा में नहीं।”
गीता का अंतिम निष्कर्ष
ईश्वर उन साधकों से प्रसन्न नहीं होते जो अपने शरीर को यातना देते हैं।
वे उन लोगों से प्रसन्न होते हैं—
जो दूसरों की पीड़ा दूर करते हैं,
जो किसी की मुस्कान का कारण बनते हैं,
जो अपनी इंद्रियों और मन को स्वस्थ मर्यादा में रखते हैं,
जो जीवन को संतुलन, सद्भाव और शांति से जीते हैं।
यही गीता का आत्म–संयम है—
स्वयं को उठाने वाला संयम, स्वयं को तोड़ने वाला नहीं।
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