आज १७ नवंबर २०२५ का दिन है।
लंदन में अपने ठहराव का प्रथम चरण पूरा करके मैं लंदन के गेटविक एयरपोर्ट से चलकर स्विट्ज़रलैंड के बाजल एयरपोर्ट पहुंचता हूं। यह ‘ईजी जेट’ नामक कंपनी का विमान है। विमान में पहुंचकर मैं अपनी सीट पर बैठ जाता हूं। जो पहली भिन्नता मेरी दृष्टि में आती है, वह है विमान की परिचारिकाओं का व्यवहार। भारत के विमानों में परिचारिकाएं प्रायः बहुत शिष्ट, मधुर और विनम्र शैली में बात करती हैं। और शिष्टाचार में ब्रिटेन का तो कहना ही क्या! वहां के विमानों में ही नहीं, हर जगह लगभग सभी लोग अत्यंत ही सभ्य व्यवहार के लिए जाने जाते हैं।
ईजी जेट की एक यूरोपीय परिचारिका और एक यूरोपीय महिला यात्री के बीच कुछ क्षणों का छोटा-सा संवाद यह संकेत देता है कि समूचा यूरोप ब्रिटेन जैसा नहीं है। या संभव है कि मुझे एक अपवाद स्वरूप प्रसंग के साक्षात्कार हुए।
विमान समय पर गेटविक से उड़ान भरता है और लगभग दो घंटे में बाज़ल एयरपोर्ट पर उतर जाता है। वहां मेरी पत्नी के ममेरे भाई—शैलेश शरद, उर्फ़ रॉकी—मेरे स्वागत के लिए उपस्थित हैं। सफेद फ्रेंच-कट दाढ़ी, सिर पर कैप, चेहरे पर स्नेह से भीगी मुस्कान, और आंखों में ऐसी नटखट चंचलता जो उम्र की प्रगति को झटकती हुई बीच-बीच में चमक उठती है। बाद में यह छिपा नहीं रहता कि वह वास्तव में एक नटखट इंसान है। किंतु उनका नटखटपन उनके गहन स्नेह और उनकी जीवंतता का ही एक स्वरूप है।
हम उनकी कार में बैठते हैं और उनके घर की ओर निकल पड़ते हैं, जो उनके अनुसार एक गांव में है। भारत और इंग्लैंड के विपरीत, जहां स्टीयरिंग कार के दाहिनी ओर होती है, स्विट्ज़रलैंड में स्टीयरिंग बाईं ओर रहती है।
शैलेश अब स्विट्ज़रलैंड में बस चुके हैं; उनका अपना घर है; उनके दोनों बच्चे स्विस नागरिक हैं। उनके और उनकी पत्नी के पास भी स्विस नागरिकता लेने का अधिकार है, किंतु उन्होंने अब तक उसका प्रयोग नहीं किया। अपने देश से संबंधों के अंतिम औपचारिक धागे को तोड़ देना, विदेशों में सेटल कुछ स्वदेश प्रेमी भारतीयों को भावनात्मक रूप से अत्यंत कठिन लगता है। शैलेश और उनकी धर्म पत्नी दिव्या भी इसी भाव से बंधे हुए हैं—अभी तक रांची की हवा, पानी और मिट्टी में ही उनका मन सना है।
शैलेश और दिव्या अपना कमरा कमरा छोड़ कर उसी में मेरे रुकने की व्यवस्था की है।
कमरे में ले जाकर शैलेश मुझे एक रिक्लाइनर सोफ़ा दिखाते हैं, जो बिस्तर के बगल में रखा है। उन्हें किसी से सुनने में आया है कि मैं सोकर उठने के बाद रिक्लाइनर पर बैठकर कुछ पढ़ता हूं। वे मुस्कुराते हुए बताते हैं कि इसकी व्यवस्था विशेष रूप से मेरे लिए की गई है। मैं उनके इस स्नेह और उदारता को देखकर सुखद आश्चर्य में पड़ जाता हूं।
मेरी पत्नी और उनका सारा परिवार अत्यंत स्नेही हैं, लेकिन शैलेश में एक भिन्न आत्मीयता दिखती है।
उनका मकान तीन मंज़िलों का है—बेसमेंट, ग्राउंड फ़्लोर जिसमें लिविंग-रूम और किचन है, और उसके ऊपर चार कमरों का एक और तल।
भोजन का समय हो चुका है। मैं डाइनिंग-टेबल पर बैठ जाता हूं। सामने शैलेश हैं, और बाईं ओर खुले किचन में दिव्या भोजन तैयार कर रही हैं। तभी उनका बेटा रोहिल आता है—दुबला-पतला, लंबा-सा किशोर, चेहरे पर मधुर और मासूम स्नेह की मुस्कान। उसका नाम ‘रोहिल’ के स्थान पर ‘स्नेहिल’ भी हो सकता था।
रोहिल पहले अपने पिताजी के पीछे आ खड़ा होता है और उनके कंधों और गर्दन को उंगलियों से हल्के-हल्के दबाता है—शायद इससे उन्हें आराम मिलता है। फिर वह उनकी पीठ पर अपनी ‘सॉफ़्ट बॉक्सिंग’ शैली में हल्के मुक्के लगता देता है—उसका अपना अनूठा व्यायाम-सह स्नेह-प्रदर्शन। पिता-पुत्र का यह समीकरण अत्यंत सुंदर और हृदयस्पर्शी है।
थोड़ी देर बाद शैलेश उसे संकेत करते हैं कि वह मुझे भी इसी शैली से कंधों और गर्दन पर दबाव दे। मेरा उससे परिचय अभी नहीं हुआ है, इसलिए वह संकोच में पड़ जाता है। फिर मेरी कुर्सी के पीछे आकर वह हल्के-हल्के दबाता है। शैलेश को शायद संतोष नहीं होता; वे स्वयं आकर वही क्रिया दोहराते हैं। मेरी किसी सहमति की प्रतीक्षा नहीं की जाती—प्रेम का स्वभाव ही ऐसा होता है। पूरे परिवार का यह एक सहज, स्नेहपूर्ण संस्कार है।
शैलेश मुझे पुराने जमाने के संबोधन ‘जीजा-जी’ से पुकारते हैं। आजकल यह संबोधन कम ही सुनाई देता है।
दिव्या भोजन परोसती हैं—आलू की भाजी, आलू-पनीर की सब्जी, कुछ अन्य तरकारियां, चावल-दाल और रोटियां। विशुद्ध उत्तर भारतीय भोजन।
सबसे विशिष्ट है उनकी आलू की एक नई शैली की भाजी—छिलकों सहित अत्यंत कुरकुरे कटे आलू। दिव्या दो-दो मास्टर डिग्री लेने के बाद भी गृह-कार्य को ही अपनी प्रिय भूमिका मानती हैं, और शायद शैलेश भी यही पसंद करते हैं। उनके घर में कोई फ्रोजन फूड नहीं दिखता—जबकि इंग्लैंड और यूरोप में यह आम है, विशेषकर उन घरों में जहां पति-पत्नी दोनों दफ्तर जाते हैं। यहां सब कुछ ताज़ा-ताज़ा है। दिव्या का दिव्य भोजन!
स्विट्ज़रलैंड का मौसम लगभग इंग्लैंड जैसा है। यद्यपि शैलेश का घर उत्तरी स्विट्ज़रलैंड में है, जहां से सीधे आल्प्स और उसके हिमाच्छादित शिखर नहीं दिखाई देते, फिर भी क्षितिज पर सुदूर नीली पहाड़ियों की श्रृंखला दृष्टिगत होती है। पहाड़ियों के रंग इंग्लैंड की तरह ही क्षण-क्षण बदलते रहते हैं—जैसे आकाश के कैनवास पर जलरंगों से उकेरी गई हों।
हवा में ताजगी है, हल्की ठंडक भी है, और आकाश में मेघ-मालाएं तैर रही हैं।
कहने को तो यह “गांव” है, पर भारतीय गांव से इसका कोई साम्य नहीं। पतली, सुंदर कोलतार की सड़कें; स्वच्छ बसें; कहीं कोई गंदगी नहीं; और एक गहरी शांति।
पिछली रात मैं केवल एक घंटे ही सो पाया था, क्योंकि सुबह चार बजे एयरपोर्ट पर रिपोर्टिंग करनी थी। इसके पूर्व पैकिंग भी करनी थी। इसलिए जब बातचीत समाप्त कर अपने कक्ष में लौटता हूं, तो नींद अनायास ही आंखों में उतर आती है।
शाम को शैलेश ने अपने घर पर सत्संग रखा हैं। कुछ परिवार—जो अध्यात्म में गहरी रुचि रखते हैं—आमंत्रित किए गए हैं।
अतिथियों के आगमन पर मुझे नीचे लिविंग-रूम में ले जाया जाता है। मैं आश्चर्य से देखता हूं कि वहां भी मेरे लिए एक रिक्लाइनिंग कुर्सी रखी गई है। इस बार यह सोफा नहीं, कुर्सी है। बाद में पता चलता है कि इसे भी विशेष रूप से मेरे लिए दिव्या के सुझाव पर व्यवस्थित किया गया है। इतनी संवेदनशीलता कम ही देखने को मिलती है।
मैं परिवारों के साथ बैठ जाता हूं। सत्संग का आरंभ होता है। मैं उन्हें बताता हूं कि आज मैं ‘मोक्ष’ या ‘निर्वाण’ की अवधारणा पर प्रकाश डालूंगा, और फिर उनके प्रश्नों के उत्तर दूंगा। यह तय हो जाता है।
संक्षिप्त परिचय के बाद स्पष्ट होता है कि वे सामान्य हिंदू परिवारों जैसे नहीं हैं; वे न केवल शिक्षित हैं, बल्कि धार्मिक साक्षरता भी रखते हैं। उनमें से कुछ तो अध्यात्म में काफी आगे बढ़े हुए प्रतीत होते हैं। किंतु ‘मोक्ष’ की अवधारणा के विषय में अभी पूर्ण स्पष्टता नहीं है। मानसिक स्पष्टता के बिना संशय बना रहता है, और दीर्घकाल तक बना रहने पर यही संशय आत्म कल्याण में बाधा बन जाता है।
भगवान ने भगवद गीता में स्पष्ट कहा है—“संशयात्मा विनश्यति”—अर्थात संशय अकल्याण का निमित्त बनता है।
मैं स्पष्ट करता हूं कि “मोक्ष” का अर्थ है—जन्म-मृत्यु के चक्र से निकलकर सभी दुखों से सदैव के लिए मुक्त हो जाना।
किंतु मोक्ष के भी दो प्रकार होते हैं-
पहला मोक्ष उन साधकों का होता है जो निराकार ईश्वर के उपासक हैं—ध्यान योगी और ज्ञान योगी। इसमें शरीर के न रहने पर आत्मा सीधे उस निराकार परम तत्व में विलीन हो जाती है, जिसे परब्रह्म कहा जाता है। यह विलय वैसा ही है जैसे समुद्र में गिरकर जल की एक बूंदी अपने व्यक्तिगत रूप को खो बैठती है—अस्तित्व रहता है, पर पहचान नहीं रहती।
दूसरा मोक्ष वह है जिसमें आत्मा अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाए रखती है, और फिर भी जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाती है।
पहले प्रकार को “ब्रह्मनिर्वाण” कहा गया है। “निर्वाण” का अर्थ है बुझ जाना, शांत हो जाना। जैसे दीपक का प्रकाश बुझ जाता है, वैसे ही आत्मा का वैयक्तिक रूप ब्रह्मनिर्वाण में शांत हो जाता है।
दूसरे प्रकार की मुक्ति को “निर्वाण” न कहकर “मोक्ष” कहना अधिक उचित है। या फिर पहले को “निर्गुण निर्वाण” कह सकते हैं और दूसरे को “सगुण निर्वाण”।
सगुण मोक्ष में आत्मा सगुण साकार ईश्वर के लोक (बैकुंठ) पहुंचती है—वह लोक जहां सगुण-साकार ईश्वर (श्रीविष्णु) निवास करते हैं। वहां शुद्ध सत्व का प्रदेश है; रजोगुण और तमोगुण का स्पर्श तक नहीं। उस अवस्था में आत्मा को अमिश्रित और कभी न शेष होने वाला दिव्य आनंद मिलता है। कोई भी दुख उसे छू नहीं पाता।
मेरी चर्चाओं के बाद लंबा प्रश्नोत्तर सत्र चलता है। अंत में यह ठहरता है कि अगले सत्संग में हम यह विचार करेंगे कि मोक्ष प्राप्ति के मार्ग कौन-कौन से हैं।
इस प्रकार स्विट्ज़रलैंड में यह प्रथम दिन एक ऐसे बिंदु पर आकर शेष होता है, जहां मुझे कुछ भावी मुमुक्षुओं के पद चाप सुनाई पड़ते हैं…।
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