“ऋषि” बने या “योगी” और “संत”?

आपने एक अत्यंत गंभीर प्रश्न उठाया है।

एक कहावत है — “Old is gold.”
अर्थात् जो पुराना है, वही सोने के समान मूल्यवान है।
परंतु यह कथन सदैव सत्य नहीं होता।

आपने जिन ऋषियों का उल्लेख किया है, वे ही नहीं, अनेक अन्य ऋषि भी हुए हैं — अत्यंत उच्च कोटि के, महान साधक।
उन्होंने अपने मन और इंद्रियों पर असाधारण नियंत्रण प्राप्त किया था।
किन्तु शास्त्र यह नहीं कहते कि वह नियंत्रण पूर्ण था।
अब प्रश्न उठता है — नियंत्रण का अर्थ क्या है?

नियंत्रण का अर्थ है — इंद्रियों के आवेग को रोक लेना, मन के भटकाव को थाम लेना।
यह निश्चय ही महान उपलब्धि है, परंतु यह आध्यात्मिक पूर्णता नहीं है।
मन को रोक लेना, इंद्रियों को संयत कर लेना — यह निषेधात्मक उपलब्धि है, नकारात्मक दिशा की सफलता है — “यह नहीं करेंगे, वह नहीं करेंगे।”
परंतु जीवन का एक दूसरा पक्ष भी है — सकारात्मक पक्ष।

क्रोध नहीं करेंगे — यह प्रशंसनीय है, परंतु यह अपने आप में पर्याप्त नहीं।
क्रोध का न होना केवल एक निषेध है; किंतु करुणा का उदय एक सकारात्मक साधना है।
“क्रोध नहीं करेंगे” और “करुणा करेंगे” — इन दोनों के बीच वही अंतर है जो नकार से स्वीकार तक की यात्रा में होता है।
यह बात कहने का एक विशेष संदर्भ है।

“ऋषि” शब्द का प्रयोग प्रायः वैदिक काल में होता था।
जिन ऋषियों का आपने नाम लिया है, वे वैदिक युग के महान तपस्वी थे।
आधुनिक काल में भी स्वामी दयानंद को “महर्षि” कहा गया, क्योंकि वे वेदों के हिमायती थे और वैदिक जीवन-पद्धति में विश्वास रखते थे।
परंतु वैदिक युग के पश्चात जो महात्मा हुए, उन्हें “ऋषि” नहीं, बल्कि “योगी”, “संत”, “महात्मा”, “परमहंस” जैसे विशेषणों से विभूषित किया गया।

वैदिक ऋषि प्रायः तपस्वी थे — वे अग्नि-यज्ञ करते, दीर्घ उपवास रखते, आत्म-पीड़क साधनाओं में रत रहते।
उनके तप के परिणामस्वरूप उनमें अनेक अति-मानवीय शक्तियाँ प्रकट हो जाती थीं।
परंतु यह मान लेना कि वे सभी ऋषि सबसे श्रेष्ठ महात्मा थे — यह उचित नहीं।
उनमें से अनेक ऐसे भी थे जो क्रोध के वशीभूत होकर दूसरों को शाप दे बैठते थे — कभी-कभी एक-दूसरे को भी, यहाँ तक कि स्वयं भगवान को भी।

उदाहरण के लिए, महर्षि दधीचि की तपस्या से उनकी अस्थियाँ वज्र के समान कठोर हो गईं, और देवताओं की रक्षा के लिए उन्होंने अपना जीवन तक अर्पित कर दिया।
परंतु उनका स्वभाव भी तीव्र था — उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु तक को शापित कर दिया।
शृंगी ऋषि ने परीक्षित जैसे धर्मात्मा राजा को केवल एक छोटी-सी भूल के लिए मृत्यु का शाप दे दिया।
ऋषि दुर्वासा का नाम तो क्रोध के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध है — उन्होंने असंख्य जनों को शापित किया।

उनके अहंकार का एक उदाहरण द्वारका में देखा जाता है —
जहाँ उन्होंने भगवान कृष्ण और रुक्मिणी को आदेश दिया कि वे उनके रथ को घोड़ों की भाँति खींचें।
भगवान की विनम्रता देखिए — उन्होंने रुक्मिणी से कहा, “चलो, हम स्वयं उनके रथ को खींचें।”
और वे दोनों निःसंकोच ऐसा करते भी हैं — यह दृश्य बताता है कि संतत्व का शिखर विनम्रता में है, न कि सामर्थ्य में।

महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र का प्रसंग भी स्मरणीय है —
दोनों ने परस्पर एक-दूसरे को शाप देकर पक्षी बना दिया।
महर्षि भृगु ने जब त्रिदेवों की परीक्षा ली, तो भगवान विष्णु के पास जाकर उनकी छाती पर लात मारी।
भगवान ने तब भी करुणा से ही उत्तर दिया।

देवर्षि नारद ने भी जब उनकी इच्छा पूरी न हुई, तो विष्णु को शापित किया।
सनकादिक ऋषियों ने वैकुण्ठ के द्वारपाल जय और विजय को केवल इस कारण शाप दे दिया कि उन्होंने कहा था —
“भगवान अभी विश्राम कर रहे हैं, अनुमति मिलते ही प्रवेश करें।”
निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो जय-विजय ने कोई अपराध नहीं किया था; वे तो केवल अपना कर्तव्य निभा रहे थे।
किन्तु क्रोधवश और अहंकारवश ऋषियों ने उन्हें शाप दिया — और परिणामस्वरूप वे रावण, हिरण्यकशिपु और कंस के रूप में जन्मे।

इन शास्त्रीय वृत्तांतों से वैदिक ऋषियों की छवि एक गहरी, किंतु जटिल प्रतीत होती है।
उनमें अत्यंत ज्ञान था, तप था, सामर्थ्य था — किंतु करुणा, क्षमाशीलता और अहंभाव की शुद्धि का अभाव था।
उनके चित्त का स्नान भक्ति के अमृत में नहीं हुआ था।

भक्ति आने पर ही मनुष्य का अहंकार गलता है।
भक्ति ऋषि को संत बना देती है।
ऋषि ज्ञान का प्रतीक है, किंतु संत प्रेम का।
ज्ञान बिना प्रेम के सूखा रहता है; और प्रेम बिना ज्ञान के दिशाहीन।
भक्ति जब ज्ञान को आलोकित करती है, तब संतत्व प्रकट होता है।

ऋषि तप के द्वारा शक्तिशाली बने,
परंतु संत प्रेम के द्वारा दिव्य बने।
ऋषि क्रोध में शाप देते थे;
संत करुणा में आशीर्वाद देते थे।
ऋषि यज्ञ करते थे,
संत हृदय को वेदी बनाते थे।

यह नहीं कि सभी ऋषि एक समान थे —
कुछ अत्यंत क्षमाशील, उदार और सरल भी थे।
किन्तु प्रधानता उन्हीं ऋषियों की दृष्टिगोचर होती है, जो क्रोध और अहंकार के वश होकर शाप दे बैठते थे।

इसलिए यह अधिक उचित है कि हम ऋषियों से प्रेरणा तो लें,
पर अपने जीवन का आदर्श संतों, महात्माओं और परमहंसों को बनाएं —
जिन्होंने तप में नहीं, प्रेम में पूर्णता प्राप्त की।

वास्तव में सर्वोत्तम यह है कि हम भगवद गीता को अपना आदर्श बनाएं —
क्योंकि गीता ऋषि नहीं, योगी, संत और महात्मा तैयार करती है।
बारहवें अध्याय के 13 से 20वें श्लोक,
और सोलहवें अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक
ऐसे संत और परमहंस का निर्माण करते हैं,
जिनके हृदय में न क्रोध है, न अहंकार, केवल समत्व, भक्ति और शांति है।

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