यात्रा-वृत्तांत – ६

लंदन में ‘ब्रह्माकुमारियों’ से प्रथम साक्षात्कार

इंग्लैंड आने का एक प्रमुख उद्देश्य था — इंटर फेथ डायलॉग, अर्थात् विविध धर्मों और आध्यात्मिक परंपराओं के बीच संवाद स्थापित करना, आपसी समझ बढ़ाना और सहयोग के नए सेतु निर्मित करना। आज उसी दिशा में एक सुंदर प्रथम कदम उठ सका।

आज हम पहुँचे — ब्रह्माकुमारीज़ वर्ल्ड स्पिरिचुअल यूनिवर्सिटी, ग्लोबल कोऑपरेशन हाउस, लंदन। वहाँ संस्था की क्षेत्रीय प्रमुख सिस्टर जेमिनी, तथा उनकी सहयोगी सिस्टर चारु, सिस्टर किम, सिस्टर कल्पना और सिस्टर दीप्ति ने अत्यंत आत्मीयता से हमारा स्वागत किया।

टेलीफोन पर हुए पहले ही संवाद में उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा था कि हम दोपहर का भोजन वहीं उनके साथ करेंगे, और सचमुच वे हमारी प्रतीक्षा में थे। भोजन सुस्वादु, सात्विक और पूर्णतः शुद्ध था — न उसमें लहसुन-प्याज का प्रयोग था, न किसी बाहरी वस्तु का। उन्होंने बताया कि उनके यहाँ कोई भी पका हुआ पदार्थ, चाहे मिठाई हो या ब्रेड, बाहर से नहीं आता। सब कुछ आश्रम में ही निर्मित होता है — स्वावलंबन और शुद्धता का यह अनुशासन उन्हें विशिष्ट बनाता है।

भोजन के पश्चात हमारा संवाद आरंभ हुआ। मैंने संक्षेप में अपनी पृष्ठभूमि बताई और निवेदन किया कि आज मैं अधिक सुनना चाहता हूँ, कहना नहीं। किंतु उन्होंने मुस्कुराते हुए बताया कि वे मेरे कुछ प्रवचन और संवाद पहले ही इंटरनेट पर देख चुके हैं — अर्थात संवाद का सेतु पहले ही बन चुका था।

सिस्टर जेमिनी, जो कई देशों में संस्था का कार्य देखती हैं, ने विस्तार से ब्रह्माकुमारी आंदोलन की उत्पत्ति और दर्शन पर प्रकाश डाला।
उन्होंने बताया कि यह संस्था भारत की स्वतंत्रता से पूर्व हैदराबाद (सिंध) और कराची में आरंभ हुई थी। उस समय समाज के पारंपरिक ढाँचे से भिन्न और कुछ हद तक क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत करने के कारण विरोध झेलना पड़ा, और अंततः संस्था का मुख्यालय माउंट आबू स्थानांतरित कर दिया गया। आज वहाँ से यह आंदोलन विश्व के लगभग ८००० केंद्रों तक फैला है।

संस्था का मूल भाव है — शांत गरिमा में कार्य करना, बिना शोर-शराबे वाले प्रचार के आत्मिक साधना और सेवा में निरंतर प्रवृत्त रहना।

हमारे साथ बैठी सिस्टरों ने एक विशेष लॉकेट धारण कर रखा था जो सभी टीचर्स धारण करती हैं— उसमें मध्य में भगवान विष्णु का, एक ओर भगवान शंकर का, और तीसरी ओर ब्रह्मे के स्थान पर उनके संस्थापक लेखराज महाशय का चित्र अंकित था, जिन्हें वे ‘ब्रह्मा बाबा’ के नाम से पूजते हैं। स्वयं को वे इन्हीं ‘ब्रह्मा की संतान’ मानते हैं, इसलिए स्त्रियाँ “ब्रह्माकुमारी” और पुरुष “ब्रह्माकुमार” कहलाते हैं।

उनका विश्वास है कि परमात्मा, जिन्हें वे ‘शिवबाबा’ कहते हैं, ने लेखराज जी के माध्यम से मानवता के कल्याण हेतु अपनी वाणी प्रकट की। मैंने पूछा — “क्या यह वाणी किसी ग्रंथ के रूप में संकलित हुई?”
सिस्टर जेमिनी ने बताया — “नहीं, यह किसी औपचारिक शास्त्र के रूप में नहीं है, किंतु तीन पृष्ठों की ‘मुरली’ के रूप में वाणी आज भी जीवित है। उसमें हिंदी, सिंधी और अंग्रेज़ी शब्दों का अनूठा मिश्रण होता है। इसे सुनना मानो आत्मा को स्पर्श करने जैसा अनुभव है — जैसे गोपियाँ श्रीकृष्ण की बाँसुरी पर मोहित हो जाती थीं, वैसे ही साधक बाबा की “मुरली” सुनकर तृप्त हो जाता है।”
उन्होंने प्रेमपूर्वक उस मुरली के कुछ अंश मुझे पढ़कर सुनाए— वह वाणी वास्तव में भावों से भीगे हुए हृदय की अनुभूति थी।

ब्रह्माकुमारी संस्था अपने आप में एक अद्वितीय प्रयोग है — न केवल सर्वधर्म संवाद की दृष्टि से, बल्कि इसलिए भी कि यहाँ स्त्री-शक्ति ही केंद्र में है।
विश्व के ८००० से अधिक केंद्र लगभग सभी महिलाओं द्वारा संचालित हैं — यह आधुनिक युग में मातृशक्ति के पुनर्जागरण का जीवंत उदाहरण है।

लंदन स्थित उनका परिसर अत्यंत सुंदर और अनुशासित है। वहाँ न कोई मूर्ति है, न पारंपरिक मंदिर की व्यवस्था। किन्तु हर कक्ष में एक निर्मल आभा है — एक प्रकाश-बिंदु की छवि, जिस पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

सिस्टर किम, जो अंग्रेज हैं, ने साझा किया कि जब वे 19 वर्ष की थीं, तभी किसी ने उन्हें भगवद्गीता पढ़ने के लिए दी और यह कहां की इसे एक बार पढ़ लो तो जीवन बदल जाएगा, और वही पल उनके जीवन का मोड़ बन गया। और उनका जीवन वास्तव में बदल गया।

आज वे वरिष्ठ नागरिक हैं, किंतु जीवन में संतोष, सादगी और प्रसन्नता का अद्भुत समन्वय लिए हुए हैं।

सिस्टर किम ने हमें पूरा परिसर दिखाया — सेमिनार हॉल, ध्यान-कक्ष, ऑडिटोरियम। ‘ध्यान-कक्ष’ में अनोखी शांति के बीच प्रकाश का बिंदु ध्यान का केंद्र है। उन्होंने बताया कि ऑक्सफ़ोर्ड में उनका एक सुंदर रिट्रीट सेंटर भी है।

संस्था की अनुशासन-प्रियता, गरिमा, और वातावरण की पवित्रता हृदय को स्पर्श करती है।
यहाँ ब्रह्मचर्य (celibacy) उनके चार मूल नियमों में से एक है — और यह न केवल नियम, बल्कि साधना का अंग प्रतीत होता है।

विदा के समय उन्होंने हमें अनेक पुस्तकें, आश्रम में निर्मित मिठाइयाँ और स्मृति-चिह्न स्नेहपूर्वक भेंट किए। मैने भी उन्हें अंग्रेजी में गीता की अपनी एक कमेंट्री भेंट की।
सिस्टर किम और एक ब्रदर एमिल हमें स्टेशन तक छोड़ने आए — वही सहजता, वही शालीनता।

संस्था की स्वच्छता, अनुशासन और आत्मिक गरिमा देखकर मन गहरी प्रसन्नता और शांति से भर गया।
यह अनुभव केवल एक भेंट नहीं था — यह आत्माओं का संवाद था, जहाँ शब्द गौण थे और संवेदना ही भाषा थी।

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