✈️ यात्रा वृतांत – 2

हीथ्रो से ऑर्पिंगटन तक — विचारों की उड़ान

हीथ्रो एयरपोर्ट की रोशनी में सब कुछ चमक रहा है — ट्रॉलियाँ, चेहरों पर थकान, और मन में घर की स्मृतियाँ। मैं बैगेज बेल्ट के पास खड़ा हूँ, जहाँ सूटकेसों की कतारें बेल्ट पर गोल-गोल घूमती जा रही हैं — जैसे किसी अंतहीन चक्र में दुनिया अपनी परिक्रमा कर रही हो।

इंडिगो की उड़ान से आया हूँ — केवल 30 किलो बैगेज की अनुमति। सोचता हूँ, जो लोग अपने प्रियजनों के लिए उपहारों से भरे बैग लाते हैं, वे इस सीमा में कैसे सिमट पाते होंगे? अपने कपड़े, जरूरत की चीजें और उपहार — सब कुछ तौल में बाँट देना कितना कठिन होता है!

उसी भीड़ में एक छोटा लड़के को अपनी दुबली-पतली माँ से फुसफुसाते हुए धीमे स्वर में कहता हुआ मैं सुन पाता हूं—“माँ, एयरलाइंस को सिर्फ बैग का वजन नहीं देखना चाहिए, आदमी का भी। दोनों को जोड़कर गिनना चाहिए। आखिर विमान को कुल वजन से ही तो मतलब होना चाहिए।”

“माँ, एयरलाइंस को सिर्फ बैग का वजन नहीं देखना चाहिए, आदमी का भी। दोनों को जोड़कर गिनना चाहिए। आखिर विमान को कुल वजन से ही तो मतलब होना चाहिए।”

मैं चौंककर मुस्कुराता हूँ। बच्चे की मासूमियत में कितनी व्यावहारिकता छिपी है! शायद वह अपने भाई बहनों और मित्रों के लिए अधिक उपहार नहीं ला पाया।
शायद वह सोच रहा है — अगर उसकी माँ का और बैग का वजन जोड़ लिया जाए, तो सीमा दोगुनी हो जाए।

पास खड़े एक भारी-भरकम सज्जन यह सुनकर बच्चे की ओर तीखी नज़र डालते हैं। स्पष्ट है, यह प्रस्ताव उन्हें पसंद नहीं आया! मैं भी इस नए प्रस्ताव के आलोक में अपना आकलन करता हूं!

विचार आता है — बच्चों के मन में ऐसी सादगी भरी सूझ होती है, जो सिर्फ तर्क से नहीं, संवेदना से जन्म लेती है। वाकई, अगर एयरलाइंस यह नियम बना दे कि यात्री और बैग का संयुक्त वजन गिना जाए, तो हम सब शायद थोड़ा हल्के — तन और मन दोनों से — यात्रा करने लगें।

मेरा बैग बेल्ट पर आ चुका है। मैं ट्रॉली आगे बढ़ाता हूँ, और बाहर निकलता हूँ।

लंदन की पहली साँस

हम एक उबर बुलाते हैं और ऑर्पिंगटन की ओर बढ़ते हैं, जहाँ मेरी एक बहन रहती हैं। टैक्सी चलाने वाला युवक पाकिस्तानी मूल का है, लेकिन इंग्लैंड में ही जन्मा और पला-बढ़ा। उसके लहजे में उर्दू की मिठास और इंग्लिश की सटीकता दोनों हैं। वह ज्यादा बात नहीं करता — बस शांत सड़कों पर कार दौड़ाता जाता है।

बाहर लंदन का शरदकालीन दृश्य है — गीली सड़कें, हल्की धुंध, और झरते हुए पत्ते।
अंदर, मेरे मन में भारत की गंध अब भी ताजा है।

सवा घंटे की यात्रा के बाद हम अपने गंतव्य पर पहुँचते हैं। मीटर पर किराया — £113 पाउंड। मैं मन-ही-मन हिसाब लगाता हूँ — करीब ₹13,000 रुपये। तुलना करूँ तो दिल्ली एयरपोर्ट से घर जाने में मुश्किल से ₹1,500 लगते हैं।

मैं मुस्कुराता हूँ —
रुपया भले ही “कमज़ोर” दिखता हो, पर अपने देश में उसकी किंमत कहीं अधिक है।
यही कारण है कि अर्थशास्त्र अब “एक्सचेंज रेट” से नहीं, PPP – Purchasing Power Parity से आकलन करता है।

क्योंकि असली सवाल यह नहीं कि एक पाउंड कितने रुपये का है,
बल्कि यह कि एक रोटी, एक किताब, एक मुस्कान — किस कीमत पर मिलती है? – अपने देश में अपनी मुद्रा की क्रय शक्ति क्या है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अपने अपने देश में क्रय शक्ति के हिसाब से 100 पाउंड से 100 रुपया अधिक मजबूत है।

और यही सोचते हुए मैं टैक्सी से उतरता हूँ —
एक नए देश की ज़मीन पर, नई आशाओं के साथ।

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