प्रश्न : पूजनीय ब्रह्मबोधी सिद्धार्थ गुरु जी,
एक शंका का समाधान चाहिए था कृपा करके प्रदान करे।
हमारे शास्त्रों और पुराणों में भगवान विष्णु जी के दशावतार बताए गए हैं जिनमें से एक श्री कृष्ण जो कि विष्णु भगवान के पूर्णवतार कहे जाते हैं।
लेकिन जब मैं इस्कॉन में भक्ति वृक्ष की शिक्षा ग्रहण करता था तो मुझे ये बताया गया था कि श्री कृष्ण विष्णु जी के अवतार नहीं है बल्कि विष्णु जी श्री कृष्ण के अवतार हैं। इस तरह से संशय पैदा होता है तो सच्चाई क्या है गुरुदेव कृपया स्पष्ट करे।
उत्तर (ब्रह्मबोधि);
इस विषय को थोड़ा गंभीर होकर समझने की आवश्यकता है।
अध्यात्म में श्रद्धा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। जब साधक को यह विश्वास होता है कि उसका आराध्य ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि है, तो उसकी भक्ति और निष्ठा और गहरी हो जाती है। यही कारण है कि संतों में यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि वे अपने आराध्य को सर्वोच्च सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
रामचरितमानस इसका उत्तम उदाहरण है। इस ग्रंथ में श्रीराम के संबंध में दो प्रकार की भावनाएँ मिलती हैं — एक ओर तुलसीदास जी उन्हें विष्णु का अवतार बताते हैं, वहीं दूसरी ओर कई स्थलों पर वे यह भी कहते हैं कि श्रीराम ही अनादि परमेश्वर हैं, जिनसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश — तीनों की उत्पत्ति हुई है। एक ही ग्रंथ में इन दो दृष्टिकोणों का उपस्थित होना प्रथम दृष्टया आश्चर्यजनक लग सकता है, और अनेक साधकों में इससे मतिभ्रम भी होता है।
इसी प्रकार, जो संप्रदाय श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं, जैसे इस्कॉन आदि, वे श्रीकृष्ण को ही परम पुरुषोत्तम भगवान मानते हैं और विष्णु, ब्रह्मा, महेश को उनसे निकला हुआ बताते हैं।
परंतु यह समझना आवश्यक है कि ऐसे विचार श्रद्धा की उपज हैं, और श्रद्धा को तर्क या विचार से उलझाना उचित नहीं है।
अधिकांश शास्त्रों में श्रीविष्णु (या नारायण) को ही सर्वोपरि ईश्वर माना गया है, और श्रीराम तथा श्रीकृष्ण को उनके अवतार बताया गया है।
भागवत पुराण में भी प्रायः श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार कहा गया है। भागवत में एक प्रसिद्ध प्रसंग आता है, जहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ एक ब्राह्मण के मृत पुत्रों को वापस लाने के लिए समस्त लोकों की यात्रा करते हैं और अंततः श्रीविष्णु के धाम में पहुँचकर उन्हें प्रणाम करते हैं। उस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि अवतार कौन है और अवतारी कौन।
इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाते हैं, तो वह रूप चतुर्भुज विष्णु-स्वरूप का होता है, न कि उनके मानव रूप का। उस दिव्य दर्शन में अर्जुन समस्त ब्रह्मांड को विष्णु-रूप में ही समाहित देखता है। यह भी इंगित करता है कि अवतारी रूप विष्णु का ही है। यदि समस्त सृष्टि को कृष्ण-स्वरूप में ही धारण करना होता, तो विश्वरूप भी उसी रूप में प्रकट होता।
इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से सत्य यही है कि श्रीविष्णु ही श्रीराम और श्रीकृष्ण — दोनों के मूल स्रोत हैं।
परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। वे भी पूर्ण सगुण ब्रह्म हैं।
जैसे पूर्ण से यदि पूर्ण निकाला जाए, तो भी पूर्ण ही शेष रहता है — उसी प्रकार श्रीविष्णु के अवतार होने का अर्थ यह नहीं है कि श्रीराम या श्रीकृष्ण किसी भी प्रकार से उनसे भिन्न या कम हैं। वे स्वरूप, ऐश्वर्य और शक्ति में श्रीविष्णु के ही समान हैं, बल्कि साक्षात् श्रीविष्णु ही हैं जो विभिन्न लीलाओं के लिए भिन्न रूपों में प्रकट होते हैं।
अतः निष्कर्ष यही है —
अवतारी श्रीविष्णु हैं, और श्रीराम व श्रीकृष्ण उनके पूर्ण अवतार।
श्रद्धा की दृष्टि से चाहे कोई भी रूप सर्वोच्च लगे, पर शास्त्र दृष्टि से तीनों में भेद नहीं, केवल लीलाओं और भावों का अंतर है।
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