आत्मन श्री खेड़ा,
ईश्वर प्राप्ति के प्रति आपकी अधीरता देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। क्योंकि जब अधीरता नहीं होती, तब प्राप्ति भी नहीं होती।
वास्तव में हम सभी मुसाफिर हैं — मोक्ष के, बैकुंठ के यात्री।
पर जैसे विमान में टिकट लगता है, वैसे ही वहां जाने के लिए भी टिकट आवश्यक है।
कोई ‘फ्री ट्रैवल’ नहीं होती। और वह टिकट रुपया या डॉलर से नहीं खरीदी जाती — वहां की करेंसी दूसरी होती है।
मैंने वही करेंसी आपको बताई थी जो गीता के श्लोकों १२:१३ से २० में और १६:१ से ३ में मिलती है। जिस पर आपने कहा था कि — वह तो बहुत कठिन करेंसी है।
एक मार्गदर्शक या गुरु का कार्य होता है — सही रास्ता दिखाना।
बैकुंठ और मोक्ष का इससे श्रेष्ठ ‘गूगल मैप’ कोई नहीं है जितना कि भगवद् गीता।
इसलिए मैंने उसी ‘गूगल मैप’ से मार्गदर्शन किया।
अब उन रास्तों पर चलना यात्री का ही काम है।
प्रत्येक की अपनी व्यक्तिगत यात्रा होती है।
इसलिए निराश न हों — चलना तो आपको ही पड़ेगा; आपके बदले आपका मार्गदर्शक या गुरु नहीं चल सकता।
भगवद् गीता के जो श्लोक मैंने आपको बताए थे, उनमें निहित भाव, विचार और जीवन-मूल्य —
उन्हें आत्मसात कर लेना ही “महात्मा” बन जाना है, “धर्मात्मा” बन जाना है।
जहां तक मुझे पता है, धर्मात्मा बने बिना वहां पहुँचना संभव नहीं।
भगवान ने धर्मात्मा बनने का एक बड़ा सरल उपाय भगवद् गीता में बताया है —
अपि चेत्सुदुराचारो भक्तो मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
(अध्याय 9, श्लोक 30)
अर्थात — “यदि अत्यंत पापी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो उसे साधु ही समझना चाहिए, क्योंकि उसका संकल्प शुभ हो गया है।”
ध्यान रखें — उपर्युक्त श्लोक में “अनन्य” का अर्थ है, और किसी देवता का नहीं — केवल एक का।
अन्य देवी-देवताओं की भक्ति में धर्मात्मा बनना आवश्यक नहीं होता, क्योंकि वे देवता या तो रजोगुणी हैं या तमोगुणी। वह अनिवार्य रूप से यह अपेक्षा नहीं करते कि उनके भक्त धर्मात्मा भी हो। भैया भी प्रतिज्ञा नहीं करते कि उनकी भक्ति करते ही कोई दुरात्मा धर्मात्मा बन जाएगा।
रावण ने शिव की तपस्या की, भक्ति की, पर धर्मात्मा नहीं बना — क्योंकि महादेव शिव ऐसी कोई शर्त नहीं रखते। उनके पास सुर असुर दोनों का स्वागत है। शास्त्र बताते हैं कि जितने भी असुर हुए हैं वह शिव या ब्रह्मा की तपस्या करते हैं गलत मनोरथ पूर्ण करने के लिए और ब्रह्मा और शिव वह गलत मनोरथ पूर्ण भी करते हैं। यहां तक कि उनके वरदानों से असुर सृष्टि को संकट में डाल देते हैं। मैं अपनी ओर से कोई बात नहीं कह रहा, जो शास्त्र कह रहे हैं वही कह रहा हूं।
सभी जीवों के प्रति दया, करुणा और धर्मात्मा बनना तो केवल श्रीहरि या उनके अवतारों — श्रीराम और श्रीकृष्ण — की भक्ति के लिए ही अनिवार्यता है और वह उनकी भक्ति से स्वतः ही संभव है।
शास्त्र यही कहते हैं।
गीता का यह श्लोक देखिए-
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति॥
(अध्याय 9, श्लोक 31)
अर्थ — “वह वह दुराचारी भी शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शांति को प्राप्त करता है।”
इसलिए श्रीहरि, श्रीराम, या श्रीकृष्ण — किसी एक को चुन लीजिए, और उसी में मन लगा दीजिए। यह तीनों को हरि ही समझकर हरि की भक्ति करडालिए। तीनों को इसीलिए “हरि” नाम से पुकारते हैं।
इसलिए धर्मात्मा बनने को कठिन ना मानिए। धर्मात्मा आप अपने आप बन जाएंगे।
पर उनकी भक्ति तभी जागेगी जब आप उनके ग्रंथ पढ़ेंगे — रामचरितमानस, भागवत पुराण और भगवद् गीता।
आप इतना करिए।
फिर समय मिलने पर मैं आपको एक ध्यान-क्रिया सिखाऊंगा — अत्यंत सरल, पर जिसका प्रभाव चरित्र पर तुरंत दिखता है।
आप भीतर से तुरंत बदलने लगते हैं।
मैं यह ध्यान-क्रिया उन सभी समूह-सदस्यों को सिखाना चाहूंगा, जिनमें धर्मात्मा बनने की तीव्र इच्छा होगी।
थोड़ा समय दीजिए — अभी मैं 26 तारीख को विदेश जा रहा हूं।
इस यात्रा की अनेक तैयारियां चल रही हैं, और संभव है कि थोड़े लंबे समय के लिए बाहर रहना पड़े।
इसलिए लंबित कार्यों का निस्तारण करना आवश्यक है।
मैं इतना अवश्य कह सकता हूं — गारंटी के साथ —
आपमें से जो भी सच्चे मन से चाहेगा, उसके निकट भगवान अवश्य आएंगे।
भगवान के पास उस स्थिति में कोई विकल्प नहीं बचता।
हरि शरणम्!
Leave a comment