श्री खेड़ा के उद्गारों से कुछ और बातों पर रोशनी डालना आवश्यक हो जाता है।
ईश्वर में पाँच अनिवार्य गुण माने गए हैं — सर्वशक्तिमत्ता, सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, अच्छाई (कल्याणस्वरूपता), और सृष्टि का निर्माण व संचालन।

इन गुणों में जो ‘अच्छाई’ का गुण है, उसमें अनेक तत्व निहित हैं — उनमें प्रमुख हैं न्यायप्रियता और दयालुता।
सभी धर्मों में ईश्वर की धारणा में ये दोनों तत्व निहित हैं — ईश्वर दयावान भी हैं और न्यायप्रिय भी।
ईश्वर इन दोनों का संतुलन हैं।

जो व्यक्ति इस बात को समझ जाता है, वह चिंतित नहीं रहता।
वह ईश्वर-प्राप्ति अथवा अन्य प्रयोजनों के लिए अपने कर्म निष्ठापूर्वक करता है, परंतु चिंतित इसलिए नहीं होता क्योंकि जानता है कि ईश्वर न्यायप्रिय हैं और उसके साथ अन्याय नहीं होने देंगे।
जितनी उसकी पात्रता है, उतना उसे अवश्य मिलेगा — न उससे कम, न अधिक।
अधीरता से कुछ नहीं मिलता।
परंतु इसके साथ ही यह विश्वास भी स्थिर रहता है कि ईश्वर दयालु और कृपालु हैं।

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं —

“समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥”
(भगवद् गीता 9.29)

“मैं सब प्राणियों में समभाव रखता हूँ; न मुझे कोई अप्रिय है, न प्रिय। परंतु जो मुझे भक्ति-पूर्वक भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।”

किंतु भगवान केवल न्यायकारी नहीं हैं — वे सबके माता-पिता और सखा भी हैं।
स्वयं कहते हैं —

“पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।”
(भगवद् गीता 9.17)

अतः जब ईश्वर हमारे शत्रु नहीं, बल्कि हमारे मित्र, माता और पिता हैं, तो फिर चिंता कैसी?

भगवान यह भी आश्वासन देते हैं कि —

“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥”
(भगवद् गीता 9.22)

“जो अनन्यभाव से मेरी उपासना करते हैं, उनके योग (जो नहीं है उसे प्राप्त कराने) और क्षेम (जो है उसकी रक्षा करने) का भार मैं स्वयं उठाता हूँ।”

इसीलिए सभी आध्यात्मिक साधकों को चाहिए कि वे भगवत-प्राप्ति की दिशा में अपना सर्वोत्तम प्रयास करें और साथ ही भगवान के प्रति पूर्ण शरणागति विकसित करें।
अन्य देवताओं की ओर भटकने की आवश्यकता नहीं — उन्हें ससम्मान प्रणाम अवश्य किया जा सकता है, पर पूर्ण भक्ति केवल भगवान श्री हरि की ओर होनी चाहिए।

इस प्रकार साधना और शरणागति का समन्वय ही ईश्वर-प्रसाद की पूर्ण प्राप्ति का मार्ग है।
यही साधक को क्रमशः धर्मात्मा, आर्द्र-हृदय, और अंततः मोक्ष-प्राप्त बनाता है — जैसा भगवान ने कहा है:

“क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥”
(भगवद् गीता 9.31)

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