प्रिय साधकजन,
आज दीपावली का पवित्र पर्व है — प्रकाश का, शुभता का, और आत्मजागरण का पर्व।
आप सबको दीपावली की अशेष शुभकामनाएं और शुभाशीष!

यह वह दिन है जब हम बाहरी दीपों के साथ-साथ अपने भीतर भी प्रकाश जगाते हैं — अज्ञान के तम से ज्ञान के ज्योतिर्मार्ग की ओर बढ़ते हैं।

आज मैं विशेष रूप से श्री विमल खेड़ा जी का उल्लेख करना चाहता हूँ, जिन्होंने अपने आध्यात्मिक जीवन को बड़ी गंभीरता से लेना प्रारंभ किया है। यह अत्यंत प्रसन्नता और प्रेरणा की बात है। वास्तव में, हम सबको उनसे यह सीखना चाहिए कि जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ न जाने पाए — हर क्षण का उपयोग हमें अपने आध्यात्मिक लक्ष्य, अपने ईश्वर-प्राप्ति के पथ में करना चाहिए।

विमल जी ने एक बात कही थी — कि यह मार्ग अत्यंत कठिन है। और निश्चय ही, यह अनुभव दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
किसी के लिए यह यात्रा कठिन प्रतीत होती है, तो किसी के लिए यह दिव्य आनंद की यात्रा बन जाती है।

वैदिक परंपराओं में इस आध्यात्मिक यात्रा को कुछ कठोर बना दिया गया था — कठोर जीवनशैली, कठोर नियम, और स्खलन पर कठोर दंड-विधान।
पौराणिक परंपराओं में हमें दोनों रंग मिलते हैं — कहीं कठोर साधना का संघर्ष, तो कहीं भक्ति का रस और प्रेम की मधुरता।

परंतु जब भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता में उपदेश दिया, तो उन्होंने इस विषय पर अंतिम निर्णय दे दिया —
कि मोक्ष की यात्रा, ईश्वर की यात्रा, दुख और आत्म-पीड़न की यात्रा नहीं है।
भगवान ने उन आत्म-पीड़क तपों मेंस को अस्वीकार कर दिया, जो शरीर या मन को यातना देते हैं।
उन्होंने कहा — “तप से मैं नहीं मिलता।”
क्योंकि ईश्वर स्वयं सच्चिदानंदस्वरूप हैं — आनंद ही जिनका स्वरूप है।

इसलिए धीरे-धीरे आप सब यह अनुभव करेंगे कि ईश्वर-धाम की यात्रा कोई कठिन या नीरस यात्रा नहीं है — यह तो आनंद से भरी हुई, प्रेम से ओत-प्रोत यात्रा है।
आज मैं इस विषय पर अधिक नहीं कहूँगा, पर समय के साथ यह सत्य आपके हृदय में स्वयं प्रकट होगा।

इसलिए, अपने मार्ग को कठिन मत मानिए।
साधना को आनंदमय बनाइए।
क्योंकि जो स्वयं आनंदस्वरूप है — वह अपने भक्तों को अपनी प्राप्ति के मार्ग में आनंद से वंचित क्यों करेगा?

और जो यह सोचते हैं कि जीवन का बहुत भाग बीत चुका है, अब अधिक समय नहीं है —
उन्हें चाहिए कि कुछ समय, कुछ महीनों के लिए, पूर्ण एकांत साधना में लग जाएँ।
जिनके पास साधन हैं, वे एक अलग कक्ष लें — दिनभर उसी में साधना करें, जप करें, ध्यान करें —
और रात्रि विश्राम अपने घर में कर लें।

इस प्रकार जब हम अपने भीतर के दीप जलाते हैं, तब हमें बाहर दीप जलाने की भी वास्तविक प्रेरणा और अर्थ समझ में आता है।
असतो मा सद्गमय — तमसो मा ज्योतिर्गमय — मृत्योर्मा अमृतं गमय।
यही है दीपावली का सच्चा संदेश।

हरि शरणम्!

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