विषय : गृहस्थ के लिए कौन सा आध्यात्मिक मार्ग सर्वश्रेष्ठ?

प्रश्न : गुरुदेव प्रणाम🙏🙏
भगवत्प्राप्ति करने के लिये ज्ञान योग, कर्मयोग व भक्ति योग में से कौन सा योग एक गृहस्थी के लिये सर्वश्रेष्ठ है?
क्या तीनो योगों को एक साथ अपनाया जा सकता है?
गुरुदेव मार्गदर्शन करें🙏🙏

उत्तर (ब्रह्मबोधि)

भगवान ने भगवद् गीता में अध्यात्म के सभी मार्गों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया है —
प्रवृत्ति-मार्ग (गृहस्थ का “योग” मार्ग, कर्मयोग मार्ग) और निवृत्ति-मार्ग (संन्यास मार्ग या “सांख्य” मार्ग)।

ध्यान-योग और ज्ञान-योग मुख्यतः संन्यासियों के लिए उपयुक्त हैं।
ध्यान-योग का तकनीकी अर्थ है — निराकार ईश्वर और निराकार आत्मा पर ध्यान लगाना।
ज्ञान-योग भी अपने शुद्ध रूप में निराकार ब्रह्म की उपासना है, जो जीव और ब्रह्म में एकत्व देखता है तथा संसार को मिथ्या मानता है।

किन्तु ध्यान और ज्ञान का एक व्यावहारिक अर्थ भी है, जो गृहस्थ-आश्रम में लागू होता है — सगुण ईश्वर पर ध्यान, और आत्म-चिन्तन रूप ज्ञान।

समन्वय-योग — गृहस्थ का श्रेष्ठ मार्ग

कुछ लोग केवल भक्ति-योग, कुछ केवल कर्म-योग या केवल ज्ञान-योग का अनुसरण करते हैं;
परन्तु भगवद् गीता का मत इन सबका समन्वय करने वाला है।
इसे समन्वय-योग कहा गया है — या कहें, परि-उपासना योग,
क्योंकि जब ईश्वर की उपासना हर प्रकार से, सम्पूर्ण रूप में की जाती है, तब वह ‘परि-उपासना’ कहलाती है।

गृहस्थ के लिए कर्म-मार्ग

गृहस्थ-आश्रम में व्यक्ति को कर्म-योगी तो बनना ही चाहिए,
क्योंकि उसे सांसारिक कार्य करने ही पड़ते हैं।
परन्तु यदि उन अनासक्त और निष्काम कर्मों में भक्ति का पुट हो, ज्ञान का आलोक हो,
और साथ-साथ थोड़ा-सा सगुण ईश्वर-ध्यान तथा निरंतर मानस जप भी हो, तो यह जीवन-मार्ग सर्वोत्तम होता है।
यह अध्यात्म का संतुलित आहार है।
और जैसे संतुलित आहार से शरीर-रोग कम होते हैं, वैसे ही संतुलित योग-आहार से चित्त-रोग मिटते हैं और आत्म-बल बढ़ता है।
देखिए निम्नलिखित श्लोक में कैसे भगवान कर्म योग में ध्यान का पुट डालने को कहते हैं :

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्तउपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्॥ १२:६/७

“जो लोग अपने सब कर्म मुझमें अर्पण करके निरन्तर मेरा ध्यान करते हैं, मैं उन्हें मृत्यु-सागर से पार कर देता हूँ।

भगवान का समन्वय-संदेश

भगवान ने बार-बार कहा है कि ज्ञानी भक्त उन्हें अत्यन्त प्रिय हैं।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥ ७:१७

“उनमें ज्ञानी-भक्त विशेष रूप से श्रेष्ठ है; वह मुझे अत्यन्त प्रिय है और मैं भी उसे अत्यन्त प्रिय हूँ।”

और 12वें अध्याय में भगवान ने एक-एक सद्गुण का वर्णन करते हुए बार-बार कहा —
“ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।”

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च… यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ १२:१३,१४

इसी प्रकार ज्ञान और भक्ति के पुट के साथ निष्काम-कर्म और अनासक्ति-योग की शिक्षा देते हुए भगवान ने कर्म-योग की दृढ़ अनुशंसा की है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
“तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में कभी नहीं।” २:४७

निष्कर्ष

इस प्रकार, एक गृहस्थ को इन सब तत्त्वों — कर्म, भक्ति और ज्ञान —
का समुचित समन्वय करना चाहिए।
इन्हीं के सम्मिलन से उसका जीवन पूर्ण और ईश्वर-मुखी बनता है।

जहाँ तक प्रश्न है — ज्ञान क्या है, भक्ति क्या है, उनके लक्षण क्या हैं — ये विषय विस्तार के हैं,
और इन पर पृथक-पृथक चर्चाएँ की जा सकती हैं।
फिलहाल इतना कहना पर्याप्त है कि समन्वय-योग ही गृहस्थ के लिए सर्वोत्तम साधना-पथ है।

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