विषय : हिंदू समाज का पतन और उसमें धार्मिक नेतृत्व की भूमिका

हिंदू धर्म के शास्त्रों में जो मानवीय करुणा मिलती है वह विरल है। फिर क्या कारण है कि यह करुणा हिंदुओं के व्यवहार में नहींदिखती। सरकारी अधिकारी एक हाथ से तो माला जपते हैं और दूसरे हाथ से गरीबों से रिश्वत वसूलना भी नहीं भूलते। व्यापारी कोई कम नहीं है, एक ओर तो राम-राम और राधे-राधे और दूसरी और मिलावट और कालाबाजारी।

लोग कहते हैं कि इसका कारण यह है कि हिंदुओं का अपने शास्त्रों से संबंध ही छूट गया है। यह सत्य है। यदि रोज रामचरितमानस, भागवत और गीता पढ़ी जाए तो इसमें निश्चित रूप से कमी आएगी।

लेकिन शास्त्रों में जो कुछ लिखा है उसे बार-बार सामने लाना धार्मिक नेतृत्व और संतों का कार्य है। यह कार्य भी होता नहीं दिखता। कोई कह रहा है गोवर्धन पूजा करो, वृंदावन की परिक्रमा करो तो सब ठीक हो जाएगा। ईश्वर मिल जाएंगे। कोई कहता है राधे-राधे करो, कोई कहता है राम राम जपो, कोई कहता है हरे राम, हरे कृष्ण महामंत्र जप करो। यह सभी अच्छी बातें हैं लेकिन शास्त्रों के अनुसार यह पर्याप्त नहीं है।

तो कोई संत नाम जाप करने को कह रहा है, कोई अग्नि यज्ञ करने को कह रहा है, कोई अपने आश्रम में बैठकर यूट्यूब पर यह बता रहा है कि किस देवता की परिक्रमा कितनी बार और किस दिशा से किस दिशा में करनी चाहिए। यह सभी संत कुछ-कुछ अच्छी बातें बता रहे हैं लेकिन यह कौन बता रहा है कि यदि आप सिर्फ परिवार पालन में लगे रहोगे और परिवार से बाहर के लोगों की चिंता और उन पर करुणा नहीं करोगे तो आप नरक में जाओगे जैसा की भागवत पुराण भागवत गीता और रामचरितमानस का रहे हैं?

अन्याय पूर्वक धन कमाने को भगवद्गीता असुर-प्रवृत्ति का लक्षण कहकर स्पष्ट निषिद्ध करती है—

“…अन्यायेनार्थ-संचयान्” — गीता 16.12।

श्रीमद्भागवत में भी “काले धन/कपट से परिवार पालने” के दुष्परिणाम बताए हैं—

“जो काली विधियों से परिवार पालने को आतुर होता है, वह अन्धतामिस्र नरक में गिरता है।” — भागवत 3.30.33।

साथ ही “दूसरों को ठगकर जो धन कमाता है, वह नरक भोगता है” — भागवत 5.26.10

अध्यत्म का सार केवल कर्मकाण्ड नहीं; लोक-कल्याण के हेतु कर्म करना है—

“जनकादि ने कर्म से सिद्धि पाई; और लोक-संग्रह के लिए भी कर्म करना चाहिए।” — गीता 3.20।

रामचरितमानस में भगवान राम कहते हैं ;

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।” — मानस, उत्तरकाण्ड, चौपाई (7.41)।

साधु संत नाम जप पर बहुत जोर देते हैं। नाम जप बहुत अच्छी चीजहै। मगर अध्यात्म के लिए पर्याप्त नहीं है। भगवान ने भगवत गीता में नाम जप को एक चौथाई श्लोक में सीमित कर दिया है किंतु परोपकार पर कई श्लोक कहें।

“यज्ञानां जप-यज्ञोऽस्मि।” — गीता 10.25।

अध्यात्म केवल नाम-जप, वृंदावन, -परिक्रमा, गोवर्धन पूजा, अग्नि यज्ञ और उत्सव तक सीमित नहीं; वह न्याय, दया, परोपकार और लोक-संग्रह से दीप्त संतुलित जीवन है।

यदि जप-माला हाथ में हो और व्यापार में मिलावट, और-कार्यालय में रिश्वत भी चले तो अध्यात्म तो गोल हो गया! सिर्फ उसका भ्रम बच गया। वह गीता 16.12 और भागवत 3.30.33 की सीधी अवज्ञा है—यह बात प्रवचनों के केन्द्र में आनी चाहिए।

अतः हिंदुओं को सच्चे अध्यात्म की ओर ले जाना हमारे संतों का दायित्व है और प्रवचनों में उन्हें इन बातों को नहीं भूलना चाहिए।

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