लोग प्रायः पूछते हैं कि धर्म और अध्यात्म में क्या अंतर है। इसे हम संतरे की उपमा से समझ सकते हैं। संतरा, जिसे हम नारंगी भी कहते हैं, तीन भागों में बँटा होता है—पहला उसका छिलका, दूसरा उसका गूदा, और तीसरा उस गूदे में भरा हुआ रस।

अब समझिए — उस गूदे में जो रस भरा है, वही अध्यात्म है, और वही सबसे मुख्य तत्त्व है। उसी से हमारी आत्मा को पोषण मिलता है। किंतु वह रस बिना गूदे के कहीं ठहर नहीं सकता। यह गूदा ही धर्म है—जो अध्यात्म को धारण करता है। रस अर्थात अध्यात्म, धर्म के भीतर ही स्थित रहता है।

अतः धर्म बिखर जाए, यदि कोई कर्मकाण्ड या बाह्य विधान न रहे, और फिर गुदे से साथ अध्यात्म भी बिखर जाए। इसलिए धर्म और उसके भीतर छिपे अध्यात्म — दोनों को एक-दूसरे से जोड़े रखने के लिए छिलके की भी आवश्यकता होती है। यद्यपि वह छिलका अंततः त्याग देने योग्य होता है, फिर भी उसकी उपयोगिता तब तक है जब तक भीतर का रस सुरक्षित रहे।

इसीलिए, धर्म का पालन अवश्य करना चाहिए, किंतु धर्म के भीतर छिपे अध्यात्म को भी आत्मसात कर लेना चाहिए। कर्मकाण्ड का सीमित, पर आवश्यक, महत्व समझना चाहिए।

हरि शरणम्!

Posted in

Leave a comment